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मौलिक विचार
'हमारी विनम्र राय मे भाषा में शुद्ध या अशुद्ध होने का कोई प्रश्न ही नही है। जो लोग भाषा शास्त्र का ककहरा भी जानते है वे जानते है कि किसी भी भाषा या भाषारूप का जैसा वह उपलब्ध हो उसका वैसा अध्ययन करना चाहिए अपेक्षया इसके कि उसे किमो खास खूटे से बाँधा जाय और शुद्ध करने का ढोग किया जाए।'
'वस्तुतः जैन शोरसेनी पहली दो प्राकृतो से जुदा है, इस तथ्य को पूरी तरह समझ लेना चाहिए।'
'हमारे खयाल से अब उसे मानक बनाने का जो कष्ट उठाया जा रहा है, वह व्यर्थ और अनावश्यक है। भाषा के शुद्ध करने की सनक मे वही ऐसा न हो कि हम जैन-शौरसेनी के मूल व्यक्तित्व से ही हाथ धो बैठे।'
-'तीर्थकर'-सम्पादकीय, मार्च १९८८
'आगम के मूलरूयो मे फेर बदल घातक है' नामक आपका लेख सार्थक एव आगम की सुरक्षा के लिए कवच है।'
'कोई भी प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ/आगम किसी व्याकरण के नियमो से बधी भाषा मात्र का अनुगमन नही करता। उसमे तत्कालीन विभिन्न भाषाओ बोलियो के प्रयोग सुरक्षिा मिलते है।'
'एक ही पथ मे कई प्रयोग प्राकृत बहुलता को दर्शात है अत. उनको बदलकर एकरूप कर देना सर्वथा ठीक नहीं है।'
'सस्कृत छाया से प्राकृत पढ़ने वाले विद्वानो के द्वारा इस प्राकृत भाषा के गाथ छेडछाड करना अनधिकार चेष्टा कही जायेगी। उमे रोका जाना चाहिए।'
'प्राचीन ग्रन्थो का एक-एक पाब्द अपने समय का इतिहास स्तम्भ होता है।' 'केव न आने विचार व्यक्त किा जा सकते है या टिप्पणी दी जा सकती है, मूलपाठ मे शब्द नही बदला जा सकता है।'
-डॉ. प्रेमसुमन जैन, अध्यक्ष-जन विद्या एव प्राकृत विभाग, सुखा० वि० वि०, उदयपुर 'तीर्थकर मे आपका लेख जन-शौरसेनी के बारे में पढ़ा। अच्छा लगा। पर यहाँ कौन सुनने वाला है । सब तो लघ-सर्वज्ञ बनने जा रहे है और जो जिसक मन मे आता है सो करने लग जाता है।'
-नीरज जैन, सतना
सम्पादक परामशं मण्डल डा० ज्योतिप्रसाद जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक श्री पचन्द्र शात्री प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीर सेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गोता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५ .
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