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पारवनाथ विषयक प्राकृत अपभ्रंश रचनाएँ
अपभ्रंश रचनाएं
अपभ्रंश साहित्य में पार्श्वनाथ का जीवन प्रेरणा का स्रोत रहा है । १०वी शताब्दी से ५वीं शताब्दी के बीच अपभ्रंश में पार्श्वनाथ के जीवन पर कई रचनाएं लिखी गई है। महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण में पार्श्वनाथ का जीवन वर्णित है, जो प्रकाश में आ चुका है । स्वतन्त्र रूप से ११वीं शताब्दी के कवि पद्मकीति का 'पासनाहचरित' हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुका है। अभी तक अपभ्रंश की ज्ञात रचनाओ में पार्श्वनाथ विषयक निम्नाकित रचनाएं अप्रकाशित है। इनको संपादित कर प्रकाशित किया जाना चाहिए, जिससे पार्श्वनाथ के जीवन पर अधिक प्रकाश पड सकेगा ।
१. पार्श्वपुराण (पं० सागरदत्त सूरि- वि० सं० १०७६ के कवि पं० सागरदत्त सूरि ने पाश्र्श्वनाथ पुराण की रचना की थी। इन्होने जवसामिचरिय भी लिखा है, ऐसी सूचना बृहत् टिप्पणिका सूची से प्राप्त होती है । किन्तु इनकी ये दोनों रचनाए अभी उपलब्ध नही हुई है । २. पासणाहचरिउ ( देवचंद )- लगभग १२ वी शताब्दी के अपभ्रंश कवि देवचद द्वारा रचित पासणाहचरित की अब तक मात्र दो प्रतियां उपलब्ध हैं । एक प्रति प० परमानन्द शास्त्री के निजी संग्रह मे है, जिसमे पत्रसंख्या ७, ७६ एवं ८१ उपलब्ध नही है । दूसरी प्रति सरस्वती भवन, नागौर के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध है । यह प्रति पूर्ण है । इसमें कुल ६७ पत्र है तथा प्रति का लेखनकाल वि० सं० १५२० चैत्र सुदी १२ अकित है। इस प्रति में ग्रन्थ का नाम 'पासपुराण' दिया हुआ है ।"
इस पासणाहचरिउ मे कुल ११ संघिया है, जिनमें २०२ कडवकों में पार्श्वनाथ के जीवन को काव्यमय भाषा में प्रस्तुत किया गया है । कवि ने अपना यह ग्रन्थ मुदिज्जनगर के पार्श्वनाथ मंदिर मे निर्मित किया गया था । देवचद के गुरू का नाम वासवचन्द्र था। इनको दक्षिण भारत का विद्वान् मानते हुए पं० परमानन्द जी ने इनका समय १२वीं शताब्दी तक किया है।
पार्श्वनाथ की ध्यान-समाधि का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि पार्श्वनाथ मोहरूपी अधकार को दूर करने के लिए सूर्य के समान एवं क्षमा रूपी लता को चढ़ने के
लिए उन्नत पर्वत की तरह है। उनका शरीर संयम और शील से विभूषित है. जो कर्मरूप कषाय की अग्नि के लिए मेघ की तरह है । कामदेव के उत्कृष्ट बाण को नष्ट करने वाले तथा मोक्षरूप महासरोवर मे कोड़ा करने वाले वे हंस की तरह हैं। वे इन्द्रिय रूपी सर्पों के विष को हरण करने वाले मन्त्र है तथा आत्म- गाक्षात्कार कराने वाली समाधि मे वे लीन है
मोह तमंध पचाव पयगो, खतिलयारुहणे गिरितुंगो । संत्रम-सीस-विसिय देहो, कम्मरुमाथ आसण मेहो पुप्फधणु वर तोमर धसो, मोक्ख महासरि- कीलण हंसो । इंदिय सप्पह विसहरमतो, अप्पसरूव-समाहि-सरतो । ३. पाषणाहचरिउ (विबुध श्रीधर ) - विबुध श्रीधर १२वी शताब्दी के समर्थ अप' कवि हैं इनको अपभ्रश की छह रचनाओ का उल्लेख मिलता है, जिनमे से चार उपलब्ध हो चुकी है उनमें 'पासणाहरि को कवि की प्रथम उपलब्ध रचना कहा जा सकता है। अपभ्रश के मनीषी डा० राजाराम जैन ने कवि के 'वड्ढमाणचरिउ' नामक ग्रन्थ का सम्पादन कर हिन्दी अनुवाद के साथ उसे प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ की भूमिका मे 'पाषणाहचरिउ' के महत्त्व आदि पर प्रकाश डाला गया है ।" इसी कवि की छठी रचना 'सुकुमाल चरिउ' का हमने सम्पादन कार्य सम्पन्न किया है, जो शीघ्र प्रकाश्य है ।
विबुध श्रीधर के इस 'पासनाहचरिउ' की अभी तक दो प्रतिया उपलब्ध है। आमेरशास्त्र भण्डार, जयपुर मे उपलब्ध प्रति वि० सं० १५७७ की है, जिसमे कुल ६६ पत्र है । ग्रन्थ की दुमरी प्रति अग्रवाल दि० जैन बड़ा मंदिर, मोतीकटरा, आगरा मे उपलब्ध है । इसमें कुल ६८ पत्र है, किन्तु ६२वा पत्र उपलब्ध नही है । इस ग्रन्थ मे कुल २ सधिया एव २३८ कड़वक हैं। साहू नट्टल की प्रेरणा से इस 'पासनाहचरिउ' की रचना दिल्ली में की गई थी । ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि श्रीधर जाति के अग्रवाल जैन थे तथा हरियाणा के निवासी थे। उन्होंने दिल्ली का सुन्दर वर्णन इस काव्य में किया है। इतिहास एवं संस्कृति स सम्बन्ध मे कई नई सूचनाएं इस ग्रन्थ से प्राप्त होती है । ग्रन्थ की रचना करते हुए कवि ने कहा है कि जिसने इस संसार के भ्रमण को नामा