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________________ वर्ष ४१, कि०३ अनेकान्त हैं अथवा नही बंधे हैं" ऐसा कथन नय पक्ष है परन्तु जो है। यह समयसार ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और (सम्यक्इससे पूर (पक्षातिकान्त) है वही समयसार है। जो शुद्ध चारित्र) इस नाम को प्राप्त होता है। आत्मा से प्रतिबद्ध है, दोनों नयो के कथन को केवल जानता इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन मे निश्चय व्यवहै, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता है, वही पक्षा. हार का समन्वय देखा जाता है जो जैम दर्शन के अनुकूल तिक्रान्त है । जो सभी नयपक्षो मे हित है वही पमयमार और युक्तिसंगत है। -काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सन्दर्भ-सूची १.पंचास्तिकाय - ७ ववहारोऽभूयत्थो भयत्थो देसिदो उ सुद्धणओ। १. (क) प्रथम श्रुतस्कन्ध में - भूयत्यमस्सिदो खलु सम्पाइट्ठी हवई जीवो ॥ समय. ११ इंदसदवदिययाण तिहुअणहिदमधुर विशदवकाण । ८. सुद्धो सुद्धादेमो णायवो परमभावदरिसीहिं। अतातीदगुणाण णमो जिणाण जिभ वाण । पचा.१ वहार दमिदापुण जे दु अपरमेट्टिदा भावे ।। समय, १२ समण मुहग्गदमट्ठ च दुग्गदिनिवारण मणिव्वाण । ६. समयमार गाथा १२ (टीका) एसहणमिय सिरसा समयमिम सुह वोच्छामि । पचा. २ १०. पाखडीलिंगेषु वा गिहलिगेसु वा बहुप्पयारेसु । (ख) द्वितीय श्रुतस्कन्ध मे -- कुवति जे ममत्त तेहिं ण णाय समयमार | समय. ४१३ अभिवदिऊण सिरमा अपुगब्भव कारण महावीर। १. ववहारिओ पुणणओ दोण्णिवि लिंगारिण भणई मोक्ख पहे तेसि पयत्थभंग मग्ग मोक्खस्स वोच्छामि ॥ पचा. .०५ णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहो सवलिंगाणि ।। ४१४ २. एवपवयणसार पच त्थय सगह वियाणि ।।। १२ तम्हा उ जो विसुद्धो चेया मोणे। गिहए किचि । जो मुयदि रागदोसे मो गाहदि दुक्खप रमोक्ख ॥ प.१०३ विमुचई किचिवि जीवा जीवाग दवाण समय. ४०७ मुणिऊण एतदट्ठ तदणुगमणुज्झदो णिहदमोहो। १३. जो समयपाहुड मिण पठिदूण अत्थतच्चदो णाउ। पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरावरो जीवो ॥ पचा. १०४ अत्थेठाही चेया मो होही उत्तम सोक्ख ॥ समय. ४१५ ३. पचा १०७, १६० ४. पंचा. १६१-१६३ (३) प्रवचनसार५. पंचा. १६६, १६८, १७०-१७१ १. प्रवचनसार गाथा २०१ ६. पंचा. १६६ ७. पचा. १६६ (वही) २. प्रवचनमार गाथा २५४ जयसेनाचार्य टीका ८. मग्गप्पभावणठें पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया। (४) नियमसार १. णिय मेरा य ज क ज तणियम णाणदसण चरित्त। भणिय पवयणसारं पंचत्थिय संगह सुत्त ।। पंचा. १७३ विवारीयपरिह रत्थ भणिद खलु सारमिदि वयण ॥ निय. ४ २. समयसार २. नियम० गाया २,४ १. समयसार गाथा २ ३ नियम० गाया १८४,१८६ (देखें नियम. टि. ६,७ २. बंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गइ पत्ते । ४. नियम० गाथा १ वोच्छामि समयपाहुइमिणमो सुयके वली भणिय ॥ सम. १ ५. सम्मत्तणाणच रणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो। .. समय० ३.४ तस्स दुणिवुदिभत्ती होदित्ति जिणहि पण्णत्त ॥ नि० १३४ ४. तं एयत्तविहत्त दाएह अप्पणो सविहवेण। मोक्ख गयपुरिसाण गुण भेद जाणिऊग तेसि पि । जदि दाएज्ज पमाण चुक्किज्ज छल ण घेतव्व ।। समय. ५ जो कुणदि परमभत्ति ववहारणयेण परिकहिय ॥ नि० १३५ ५. ववहारेणुवदिस्सई णाणिस्स चरितदसण णाणं । ६. णियम णियमस्स फलं णि द्दिट्ठ पवयणस्स भत्तीए। ण वि णाण ण चरित्त ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥समय. ७ पूवावरविरोधी जदि अवणीय पुरयतु समयण्हा ॥१८४ ६. जहण वि सक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उ गाहेउं । ७. ईसाभावेण पुणो केई णिदति सुंदर मग्गं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। समय, तेसि वयण सोच्चाऽभत्ति मा कूणह जिलमग्गे ॥ नि.८५ स्था देखिए, वही गाथा ६.१० (शेष पृ० १० पर)
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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