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________________ संघे शक्ति कलौयुगे स्व० डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ मसार के समस्त स्त्री-पुरुष “मनुष्य जाति" नामक और मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना चरितार्थ करते हुए नामकर्म के उदय के कारण एकजातीय या गजातीय होते प्रगति पथ पर अग्रसर होते है। हुए भी श्रीमद् कुन्दकुन्दा नाय की प्रसिद्ध उक्ति "नाना- परन्तु, यदि वे वैयक्तिक या निहित स्वाथों, सत्ता जीवा, नाना कम्मा, नानाविह हवेई लद्धि" के अनुसार वे लोलुपता, विषय लोलुपता, धन-परिग्रह या मान-प्रतिष्ठा अनेक है, और उनमे परम्पर अन्नर होने है-उनके अपने- को लिप्सा, पूर्वबद्ध धारणाओ, हठधर्मों, अधविश्वासो, अपने कर्म, कर्मोदय और कर्मफल भिन्न-भिन्न होते है। अज्ञान आदि के वशीभूत होकर भेद मे अभेदता या अनेक उनकी लम्पिया या उपलब्धियाँ भी मार विविध और मे एकना के मौलिक तत्त्व को विस्मत कर देते है, अपनीविभिन्न हाली है। ये कर्म ननिन, प्रकृतिजन्य, स्वभावजन्य, अपनी ढपली अपना-अपना राग अलापने लगते है, अपने जन्मजात संस्कारजन्य, शिक्षा-दीक्षा-जन्य, परिवेश-वाता- से भिन्न विचार रखने वालो की भावनाओ की ओर से वरण-देशकालादि जन्य अन्तर एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति आँख मृद लेते है, उनकी उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार, से भिन्न बना देते हैं। कोई रूपवान है, कोई कुरूप, कोई भर्त्सना, निन्दा आदि में ही लगे रहते हैं या उनका शोषण बलवान है कोई निर्बल, कोई पूर्णाङ्ग है कोई विकलाङ्ग, उत्पीडन आदि करने लगते है, तो प्रगति अवरुद्ध हो जाती कोई निरोगी है कोई रोगी, कोई बुद्धिमान, मेधावी-प्रतिभा है, और सामाजिक, राष्ट्रोय तथा मानवीय अवनति एव सम्पन्न है तो कोई अल्पमा । -जड मूर्ख है, किसी को पतन के द्वार खुल जाते है। उनकी दलबन्दियो एव गुटक्षमता-योग्यता अधिक मा किमी की अल्प है, कोई बन्दियो के प्रताप से उनकी विकृति राजनीति एव अर्थभद्रप्रकृति मज्जन है तो कोई अभद्र-दुर्जन-दृष्ट स्वभाव का नीति धर्म एव मानवीयता जैसे निर्मल तथा मर्व-हितोपहै। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच वैयक्तिक चिया, जीविको- कारी क्षेत्रो पर भी हावी हो जाते है-कभी-कभी तो पार्जन के लिए अपनाये गये व्यत्रमाय, आर्थिक स्थिति एव द्वेषपूर्ण दोषारोपण, कुत्सित लाछनो, अपशब्दो, जाति या पद प्रतिष्ठा, देश-काल भाषा आदि के भी भेद होते है। धर्म से बहिष्कार की धमकिया आदि हिंसक वैर-विरोध धार्मिक विश्वानो, धर्माचरण की प्रवृत्ति, क्षमता एव एव आतकवादी उपायो का आश्रय लेकर उक्त पवित्र प्रकारों तथा जीवन के "लौकिक एव पारमाथिक" लक्ष्यो क्षेत्रो को भी विकृत एव निरर्थक बना डालती है। के भी अन्नर हो सकते है। मनुष्य जाति के नाना पाणियो भारतीय इतिहास के मध्यकाल (लगभग १०००मे प्राय: सर्वत्र एव गभी कालो मे सहज ही पाए जाने वाले १८०० ई.) मे अनेक बाह्य एवं आन्तरिक कारणों से भेद या असर उसकी जीवतता, प्राणवत्ता एव मक्रिय भारतीय समाज मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्णप्रगतिशीलता के ही द्योतक है। उनके सबके रहते भी व्यवस्था तो जन्मतः रूढ हई ही, प्रत्येक वर्ण में अनगिनत मनुष्यमात्र समान है, एक है, मानवतारूपी एक सूत्र मे जातियाँ-उपजातियाँ-अवान्तरजातियाँ तथा प्रायः प्रत्येक परस्पर बधे है। इस अनेकता में एकता, भेद में अभेद, धर्म परम्परा मे अनेक सम्प्रदाय-उपसम्प्रदाय, पथ-उपपंथ विविधता में समानता के बल पर ही वे सद्भाव, सहयोग आदि भेद-प्रभेद भी उदित होते, विकसित होते और रूढ़ एव सहअस्तित्वपुर्वक समष्टि के लिए हितकर सामूहिक होते चले गये। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपनी छोटी-सी उद्देश्यों की प्राप्ति में स्वशक्त्यानुसार प्रयत्नवान होते है जाति-उपजाति विशेष, अपना छोटा-सा पंथ-उपपथ विशेष,
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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