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________________ ६, वर्ष ४१, कि० ३ मनकाम्त में ग्रन्थ का फल बतलाते हुए लिखा है कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा । बुज्झदि सासणमेय सागारणगार चरितया जुत्तो। कम्म जंभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥ जो सो पवयणसारं लहुगा कालेण पप्पोदि ॥२७५।। दन्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पूब्वभणिदपज्जया। अर्थ-जो गृहस्थ और मुनि की चर्या से युक्त होता पज्जवणयेरण जीवा संजुता होति दुविहेहिं ॥ हुआ (अरहन्तभगवान् के) इस शासन (शास्त्र) को जानता दशम परम भक्त्याधिकार के प्रारम्भ मे ग्रन्यकार है वह शीघ्र ही प्रवचन के सार (मोक्ष) को प्राप्त कर व्यवहार नय की अपेक्षा से उसकी प्रशसा में लिखते है - लेता है। यहा "सागारणगारचरियया" शब्द ध्यान देने "जो श्रावक अथबा मुनि रत्नत्रय मे भक्ति करता है अथवा योग्य है जिसकी व्याख्या करते हुए जयसेनाचार्य ने लिखा गुणभेद जानकर मोक्षगत पुरुषो मे भक्ति करता है उसे है-'अभ्यन्तर रत्नत्रयानुष्ठानमुपादेय कृत्वा बहिरङ्गरल- निवृत्ति-भक्ति (निर्वाण भक्ति) होती है।"५ त्रयानुष्ठान सागारचर्या थावकाचर्या । बहिरङ्गरत्नत्रया अन्त मे ग्रन्थ कार अनी सरलता को बतलाते हुए धारेण भ्यन्तर रत्नत्रयानुष्ठानमनगारचर्या प्रमत्तसयतादि हृदय के भाव को प्रकट करते है-'प्रवचन को भक्त से तपोधनच येत्यर्थः ।" कहे गये नियम और नियमफल में यदि कुछ पूर्वापर विरोध इस तरह इस प्रवचनमार मे विशेष रूप से व्यवहार । हो तो समयज्ञ (आगमज्ञ) उस विरोध को दूर करके सम्यक् निश्चयरूप मुनिधर्म का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार पूर्ति करें।" किन्तु ईर्ष्याभाव से इस सु-दर मार्ग की यदि दोनो नयों का सम्यक् समायोजन चाहते है। ज्ञान और कोई निन्दा करे उनके वचन सुनकर जिन मार्ग के प्रति क्षेय अधिकार में भी निचप-व्यवहार अथवा द्रव्याथिक- अभक्ति न करे क्योकि यह जिनोपदेश पूर्वापरदोष से रहित पर्यायाथिक दोनो नयों का समन्वय करते हुए वस्तु तत्त्व। है।' यहाँ पूर्वापरविरोध परिहार की बात करके ग्रन्थका विवेचन करते है। कार दोनों नयो का सम्यक समन्वय करना चाहते है । इसे (४) नियमसार सुनकर ईा भाव उन्न होने की सम्भावना को ध्यान में जो अवश्यक रणीय (नियम से करने योग्य । हो उन्हें रखत हुए ग्रन्थकार व्यवहार नयाश्रित भाक्त को न छोड़ने "नियम" कहते है। नियम से करने योग्य है सम्यग्ज्ञान, से करने योग्य है सम्यग्ज्ञान, की बात करते है। दर्शन और चारित्र। विपरीत ज्ञान, दर्शन और चारित्र __इस तरह ग्रन्थकार सरल हृदय से किसी एक नय का का परिहार करने के लिए निय- शब्द के साथ "सार" ऐकान्तिक ग्रहण अभीष्ट न मानते हुए पूर्वापरविरोध रहित पद का प्रयोग किया गया है।' इस तरह यह नियमसार स्थाद्वाद का सिद्धान्त ही प्रतिपादन करना चाहते है। ज्ञान, दर्शन और च रिस स्वरूप नियम निर्वाण का कारण (मोक्षोपाय) है तथा उसका फल परम निर्वाण प्राप्ति है। (५) अष्टपाडइसमे १६ अधिकार है। इस ग्रन्थ के लिबन का प्रयोजन दर्शनादि सभी पाहुडो के प्रारम्भिक पद्यो मे वर्द्धमान ग्रन्थकार न यद्यपि निज भावना बतलाया है परन्तु प्रवचन आदि तीर्थङ्करो को नमस्कार किया गया है।' शील पाहड भक्ति भी इसका प्रयोजन रहा है।' मे शील और ज्ञान के अविरोध को बतलाते हुए लिखा है ग्रन्थारम्भ करते हुए ग्रन्थकार "जिन" को नमस्कार कि शील के बिना पन्चेन्द्रिय के विषय ज्ञान को नष्ट कर करके केवली और श्रुतकेवलियो के द्वारा कथित नियम- देते है। अत: सही ज्ञान के लिए चारित्र अपेक्षित है। सार को कहने का सकल्प करते है ।' पश्चात् व्यवहार लिङ्गपाहुड मे केवल बाह्यलिङ्ग से धर्मप्राप्ति मानने वालो और निश्चय दोनो नयों की दृष्टि से रत्नत्रय का कथन को प्रतिबोधित किया गया है।' इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ - करते है। प्रथम जीवाधिकार के अन्त मे ग्रन्थकार निश्चय- का पथभ्रष्ट बाह्यलिङ्गी साधुओ को ही प्रतियोधित करना व्यवहार तथा द्रव्याथिक-पर्यायाथिक दोनो प्रकार के नय मुख्य लक्ष्य रहा है। इस तरह इस ग्रन्थ में भी दोनों नयों विभाजना का समन्वय करते है : का समन्वय देखा जा सकता है।
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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