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मिथ्यात्व हो अनन्त संसार का बन्धक है
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अज्ञात नहीं है कि आठ कर्मों में मोहनीय की प्रधानता है सासादन मे मिथ्यात्व निमित्तक वन्ध नहीं होता। इसके और मोहनीय के दो भेदों में दर्शन मोहनीय की प्रधानता पश्चात् भजनीय है अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त है। दर्शन मोहनीय का एक ही भेद है मिथ्यात्व । अतः हुए जीवों के मिथ्यात्व निमिनक बन्ध होता है, अन्य गुणप्रकारान्तर से मोहनीय का समस्त महत्व मिथ्यात्व को ही स्थानों को प्राप्त हुए जीवो के नहीं होता। प्राप्त हुआ है जब तक उसका सतत उदय विद्यमान है तब यह सब जानते हैं कि दर्शन मोहनीय और चारित्रतक ससार अनन्त है। इसी से मिथ्या दर्शन या मिथ्यात्व मोहनीय के आस्रव के कारण भिन्न-भिन्न कहे है। कषाय को अनन्त कहा है, उस अनन्त मिथ्यात्व के साथ बंधने के उदय से हुआ तीव्र परिणाम चारित्रमोह के आस्रव का वाली कषाय इसी से अनन्तानुबन्धी कहलाती है। उसके कारण है जब कि केवली, श्रुत, सघ आदि का अवर्णवाद कारण मिथ्यात्व अनन्त नही है किन्तु अनन्त मिथ्यात्व के दर्शन मोह के आस्रव का कारण है। अर्थात कषाय के उदय कारण वह कषाय अनन्तानुबन्धी है। अनन्तानुव.धी की से हुए तीव्र परिणाम से भी मिथ्यात्व के उदय से आ व्याख्या मे शास्त्रकारो ने अनन्त का अर्थ मिथ्यात्व कहा परिणाम भयानक है। तभी तो प्रथम से स्थिति वन्ध है पोर तदनुवन्धी कषाय को अनन्तानवन्धी कहा है। इस चालीस और दूसरे से सत्तर कोड़ा कोडी सागर होता है। कषाय का विसयोजन करके जो मिथ्यात्व गुणस्थान में तत्त्वार्थ सूत्र के छठे अध्याय मे कर्मों के आस्रव के कारणो आता है उसके अनन्नानुवन्धी का पुन: वन्ध होता है और का वर्णन करते हुए अन्तिम सूत्र की व्याख्या म कहा है कि मिथ्यात्व स्वोदयवन्धी है।
यह कथन अनुभाग विशेष की दृष्टि से है अर्थात् इन कारणो ___ आगम मे तीन आयुओ को छोड़कर शेष सब कर्मों की
से उस विशेष कर्मों का विशेष अनुभाग वन्ध होता है और उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध उत्कृष्ट संक्लेष से कहा है। तथा स्थिति बन्ध की तरह अनुभाग वन्ध भी कषाय से कहा है आहारक द्विक, तीर्थंकर और देवायु को छोड़कर सब
फिर भी इन इन कार्यों के करने से जैसे उन उन कर्मों में उत्कृष्ट स्थितियों का वन्धक मिथ्या दृष्टि को कहा है। विशष अनुभाग वन्य हाता है वस हा विशेष स्थिति बन्ध इमगे ससष्ट है कि मिथ्यात्व भाव ही तीव्र संक्लेश का भी होता है। अत: मिथ्यात्व को स्थितिवन्ध और अनुभाग कारण होता है। इसी से मिथ्यादृष्टि को होबन्धक कहा
वन्ध का हेतु न मानना उचित नहीं है। यदि ऐसा होता है। मिथ्यात्व के उदय के अभाव में अनन्नवन्धी के उदय तो मिथ्या दृष्टि को ही उत्कृष्ट स्थिति का वन्धक न कहा से उत्कृष्ट स्थिति बन्ध नही होना इससे मिथ्यात्व स्थिति गया होता । अतः मिथ्यात्व को वन्ध के प्रति किचित्कार बन्ध मे अकिचित्कर नही है यह सिद्ध होता है। यदि कहना उचित नहीं है इससे मिथ्यात्व भाव को प्रोत्साहन उत्कृष्ट स्थिति वन्ध मे एक मात्र कषाय ही कारण होती मिलता है और सम्यक्त्व की विराधना होती है। तो अपने में चालीस कोड़ा नोड़ी सागर की स्थिति बांधने
हम देखत है कि आज चारित्र धारण पर तो जोर वाली कषाय मिथ्यात्व मे सत्तर कोड़ा कोडी सागर का
दिया जाता है किन्तु सम्यग्दृष्टि बनने की चर्चा भी नहीं स्थिति वन्ध नहीं करा सकती। यह तो मिथ्यात्व की ही की जाती है मानों जैन कुल मे जन्म लेने से ही सम्यक्त्व देन है उसी के बल से अनन्तानुवन्धी कषाय बलवती होती प्राप्त हो जाता है जब कि आगम चरित्र धारण करने से है। मिथ्यात्व का उपशम होने के साथ ही उसका उपशम पहले सम्यक्त्व प्राप्त करने पर ही जोर देता है। क्योकि हो जाता है। इसी मिथ्यात्व की उपशमना के प्रकरण मे सम्यक्त्व विहीन 'चारित्र, चारित्र नहीं है और न चारित्र एक गाथा धवला और जयधवला मे आती है-
धारण कर लेने से ही सम्यक्त्व हो जाता है, दोनो की मिच्छत्तपच्चयो खल बन्यो उवसामयस्स बोधव्वो। प्रक्रिया ही भिन्न है। आगम तो चारित्र भ्रष्ट को भ्रष्ट उवसंते आसाणे तेण परं होवि भयणिज्जो ॥ नही कहता, श्रद्धान भ्रष्ट को ही भ्रष्ट कहता है। आज
अर्थात्-उपशामक के मिथ्यात्व के निमित्त से वन्ध जो चारित्र धारियो की विसंगतियां सुनने में आती हैं जानना चाहिए । दर्शन मोह की उपशान्त अवस्था में और उनका मूल कारण सम्यक्त्व का अभाव ही है। सम्यग्दृष्टी