SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० वर्ष ४१, कि० ३ चारित्र धारण कर किसी प्रकार की लोकंपरा के चक्कर में नहीं पड़ सकता; क्योंकि उसकी दृष्टि मे संसार शरीर और भोगों का यथार्थ स्वरूप खचित होता है। अतः कषायभाव से मिध्यात्वभाव भयानक है। प० टोडरमल जी ने अपने मोक्ष मार्ग प्रकाशक मे लिखा है "मोह के उदय से मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं उन सबका नाम सामान्यतः कषाय है। उससे उन कर्म प्रकृतियो की स्थिति बंधती है ।" पंडित जी के इस कथन श्रनेकान्त से भी इस कषाय भाव मे मिथ्यात्व सम्मिलित है । अतः मिथ्यात्व से भी स्थितिवन्ध अनुभाग वन्ध होते हैं, ऐसा मानने में किसी को आपत्ति नही होना चाहिए। इससे कोई हानि नहीं होना चाहिए। इससे कोई हानि नही है। न आगम में ही वाधा आती है और न मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का महत्व समाप्त होता है। ये दोनो ही संसार और मोक्ष के द्वार हैं । आचार्य समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में मोह राजा को ही शत्रु और कषायो को उसकी सेना कहा है । - ( जैन सदेश से साभार ) एक चिन्तन एक महाशय श्री मन्दिर जी में मिले, उन्होंने कहाकि आपने एक पुस्तक आचार्य श्री विद्यासागर जी की 'अकिर' पढ़ी। मैंने कहा- नहीं उन महाशय ने एक प्रति मेरे पास भिजा दी। वैसे समय कम था परन्तु उस व्यक्ति की इस पुस्तक के प्रति विशेष उत्कण्ठा एवम् आचार्य श्री के प्रति मेरी निष्ठा ने विशेष जागृति उत्पन्न दी, मैंने पुस्तक पढ़ना शुरू किया और आद्योपान्त ढ़ा। उसमें एक बात सामने आई कि पुस्तक आचार्य श्री कैशिटो से सम्पादित की गई है। सो आचार्य श्री अपने ज्ञान-ध्यान रत त्यागीवृन्द के वास्ते कहे तब तो यथार्थ हो सकता है क्योकि व्रती सम्यक्त्व युक्त होता है --मिथ्यात्व । रहित होता है। उनके लिए मिध्यात्व अकिचित्कर हो सकता है । परन्तु हम जैसे साधारण अल्पज्ञ अव्रतियों के लिए यह अर्कचित्र का उपदेश तथ्य नहीं हो सकता । अब पुस्तकाकार का उद्देश्य इस कथनी को जन जन तक पहुचाने का है जय कि उपदेश पात्र के अनुसार देना चाहिए | पर, यह पुस्तक हमारे जैसे अपात्र के हाथ मे आ गई हैं और हम मिथ्यात्व को अकिंचित्कर मानकर कही कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र की सेवा में पड़कर अपना बचा हुआ पाक्षिक धर्म भी नष्ट न कर दे - इसलिए इसका स्पष्टीकरण दिया है। विचार करें। ( पृ० १७ का का ही बन्ध नहीं होता, परन्तु अनन्तानुबन्धी का भी बन्ध होता है । इसलिए यह उपचार भी सम्भव नही है । सम्यदर्शन को धर्म का मूल कहा है इसी प्रकार मिथ्यादर्शन संसार का मूल है। मिध्यादर्शन गये बिना अनन्तानुबन्धी नही जा सकती और अनन्तानुबन्धी गये बिना बाकी की कथाय नही जा सकती इसलिए मिया । दर्शन संसार का मूल है। उसके गये विना ज्ञान सम्यक्ज्ञान नहीं हो सकता, चारित्र सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता। इसलिए मोक्षमार्गी को मिथ्यात्व के नाश का पुरुषार्थ सबसे पहले करना चाहिए। मिथ्यात्व के नाश का पुरुषार्थ किया जाता है उसके नाश होने पर अनन्तान - 'चिन्तक' - शेषांश) बन्धी अपने आप चली जाती है। इसीलिए समन्तभद्रस्वामी ने लिखा है कि मोही ( मिथ्यात्व सहित ) मुनि से निर्मोही ( मिथ्यात्व रहित ) ग्रहस्थ श्रेय है । मोही मुनि ने मिध्यात्व का अभाव नहीं किया, इसलिए कथाम के नाश का उसका समस्त पुरुषार्थ निरर्थक चला गया। अनन्ताको नहीं मेट सका जबकि निर्मोही ग्रहस्थ ने नुबन्धि सम्यक प्राप्ति का पुरुषार्थ किया। जिससे अनन्तानुवन्धि अपने आप चली गयी। सम्यक्दर्शन होने के बाद स्थाय मेटने का पुरुषार्थ चालू होता है इसीलिए सम्पदर्शन को धर्म का मूल कहा है और मिध्यात्व ससार का मूल कहा है क्योकि इसके रहते कषाय का अभाव नहीं हो सकता ।
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy