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________________ ३२, वर्ष १; कि०२ अनेकान्त यह शोचनीय अवश्य है कि जब वर्तमान विद्यमान प्राकृतज्ञ संपादनों के पक्ष में भी नहीं। क्योंकि जितने संपादन उतनी जिस व्याकरण को (के आधार पर) पढकर प्राकृतज्ञ बने हैं विविधताएं। कई बार तो पाठक को ऐसा भ्रम तक हो वह व्याकरण आर्ष-निर्माण के बहन (शताब्दियो) बाद जाता है कि कौन-सा ठीक है, और कौन-सा नही। साथ आषों के आधार पर बना है-तब वे पूर्ववर्ती आगमों में ही पाठक संपादकों के शब्दजाल में भी उलझ जाता है। व्याकरण द्वारा विभक्त किसी एक भाषा का निर्धारण कैसे उदाहरण के लिए समयसार के संपादनों को ही लीजिए। कर सकेंगे, जब कि आगमों में परवर्ती विभिन्न जातीय कितने-कितने उद्धट विद्वान समयसार के पृथक-पृथक् व्याकरणों से सिद्ध विभिन्न शब्दरूप मिलते हैं। कितने ही संपादन कर चके हैं फिर भी कार्यसिद्धि नहीफिर इसका निर्णय एक-दो दिन का विषय भी नही विसंवाद ही हैं-किसी को कोई ठीक है और किसी को कोई ? लम्बे विचार का विषय है। फलतः एक-दो दिन के कमीशन बिठाने की अपेक्षा हम उचित समझते है कि विद्वान् इस काश, हमारा प्रयत्न समयसार आदि के मूल और विषय में खोज करें और सप्रमाण मैटर (लेख) तयार आचार्यों कृत उसकी संस्कृत टीकाओ के शब्दार्थ मात्र के करे। वीर सेवा मन्दिर उपयुक्त लेखों पर उपयुक्त पुरस्कार अनुसरण मात्र मे होता--हम लोगों को शब्दश: अर्थ देते मेंट करेगा। इससे लेखकों को विचार करने का अवसर -उन्हें अपने भाव न देकर आचार्यों के शब्दशः मन्तव्य भी मिलेगा और लेखों का संग्रह भी होगा। लेख सादर समझाते तो विवादों से तो बचे ही रहते-संपादों मे आमंत्रित हैं। हमारी भावना विरोध की नही, अपितु हम पुन -पुनः प्रभून द्रव्य भी व्यय न हुआ होता और जिनवाणी चाहते हैं कि-प्राचीन कोई प्रति प्रादर्श मानी जाकर वैसेही का लरूप भी सुरक्षित रहा होता। पूरे पाठ छपाए जाय और पाठ-भेद या अपना अभिमत हो तो टिप्पण में दिए जाय। इसका अर्थ यह नही कि हम संपादनों के खिलाफ है सम्पादन तो हम चाहते है-वे हों और जानकार योग्य प्रन्यों का सम्पादन और सुझाव : संपादको से हो और ऐसे ग्रन्थो के हों जो प्रकाश में न आ सके हों। जैसे किसी समय भाषा के दिग्गज विद्वानो जब हमने मूल-आगम के बदलाव को रोकने की बात द्वारा षटखण्डागम का सपादन हुआ था। आदि । उठाई तो एक महाशय ने शत-प्रतिशत हमारा समर्थन करके भी हमें बाद में सलाह दी कि इस विरोध के बजाय एक सुझाव यह भी था कि समाज में वैसे ही बहत से यदि आप किसी ग्रन्थ का सम्पादन करके कोई आदर्श उप- विवाद हैं आप भाषा का नया विवाद क्यों छेडते हैं ? यह स्थित करते तो और अच्छा होता । शायद उन्होने हमारी सुझाव भी उन्टा होने से हमे राम नहीं आया। हम सोचते कमजोरी और हमारे दष्टिकोण को नहीं समझा, जो वे है कि कैसे कैसे लोग हैं जिन्हे हमारा आगम-रक्षा का हमारी नाच मे उतर पड़े। हम बता दें कि हम इनने योग्य प्रसंग तो विवाद दिखा और आगम के मूल-लोर जैसे श्री नही कि आगम ग्रन्थो पर कलम चला सकें। फिर हमारा गणेश के ममय और आज भी वे मौन साधे रहे ? हम नहीं यह धन्धा भी तो नही । हमारी दष्टि से जब कई बड़े बड़े समझे उनकी क्या साध थी या उन्हें किसका क्या भय या विद्वान् जिनप्रथों के कई-कई सपादन करके आदर्श उप- लालच था? जो वे जिनवाणी के लोप को गुप-चुप देखते स्थिर कर चुके हों और उन्ही सम्पादनों से किसो को रहे ? इसे वे ही जाने । जरा, आप भी सोचए, कि ठीक आदर्श न मिल सका हो, तब हम किस खेत की मूली जो क्या है ? हमारा कोई आग्रह नही-विचार है । आदर्श दे सकें? फिर, हम तो एक-एक ग्रन्थ के अनेक-२ -संपादक
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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