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________________ २८, वर्ष ४१, कि०२ अनेकान्त से जीव की उत्पत्ति सिद्ध है, तो औषधियों के क्वाथ माह की व्याधि (रोग) की वेदना (दु ख) कौन सहन (काढ़ा)से किसी पात्रमे जीव-शरीर उत्तान होना चाहिए।" करता है। महापुराण" राजा महाब 1 के एक मन्त्री ___ अपभ्रश कवियो ने भी चार्वाक .र्शन के "प्रत्यक्ष ही द्वारा क्षणिकवाद का समर्थन किया गया है। जिसका प्रमाण है" नामक मत की समीक्षा विभिन्न प्रमाणों द्वारा खण्डन अन्य मत्री स्वय बुद्ध नामक ने करते हुए कहा है किकी है । इसके अनुसार मात्र दृष्टिगत पदार्थों की सत्ता जइ दब्बई तुह खणभगुराइतो खणधसिणि वासणणकाइ।" नहीं है, अथवा जो नेत्रों से दिखाई नहीं देते वे पदार्थ नही "द्रव्य को क्षगस्थायी मानने से वासना (जिसके द्वारा है। तो हमारे पूर्वजों (पितामह आदि) को जिन्हें हरने पूर्व मे रखी गई वस्तु का स्मरण होता है) का भी अस्तित्व नही देखा, उनकी भी सत्ता नही स्वीक री जा सकती।" नहीं रह जाता है।" वौद्ध दर्शन की मान्यता है कि जबकि हमारी सत्ता होने पर पूर्वको की सत्ता-सिद्धि के वासना के नष्ट होने पर ज्ञान प्रकट होता है। किन्तु लिए आगम-प्रमाण माना जाए, तो भी चावार्क दर्शन का वासना भी पचस्कन्धों से भिन्न न होने के कारण क्षणयह मत स्वत: खण्डित हो जाता है।४३ मात्र में नष्ट हो जाती है। अत: उन्ही की यह उक्ति बौद्ध दर्शन की समीक्षा : क्षणिकवाद को भग कर देती है। इसी प्रकार जो जीव जगत को नश्वर, क्षणविध्वंसी व अनित्य मानने घर से बाहर जाना है क्षणिकवाद के सन्दर्भ में देखे तो वाला बौद्ध-दर्शन आत्मा की नित्य सत्ता भी स्वीकार वहा जाप घर कसे लोटता है ? जो वस्तु एक ने रसो, उसे दूसरा नही जान सकता।" नहीं करता है । जीव अनित्य इस मायने मे है कि वह समार में प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति का कोई । कोई क्षणिक है, प्रत्येक क्षण वह परिवर्तित होता रहता है। कारण अवश्य है । "अस्मिन् मात इद भवति" अर्थात यदि 'पचस्कन्ध" को आत्मा मान भी लिया जाये तो उसे इसके होने से यह होना - इस प्रकार का भाव ही प्रतीक्षणिक ही माना जायेगा, नित्य नही । इसलिए आ:म त्यसमुत्पादवाद (कारण-कार्यबाद) कहा जाता है। बुद्ध वादी मतो द्वारा जीव को नित्य मानना उचित नहीं है। के नार आर्य सत्यों के दुख रूपी कार्य की उत्तात्त व बौद्ध-दर्शन में जीव को शरीरपर्यन्त माना गया है किन्तु विनाश द्वादश निदान (अविद्या-अज्ञान आदि) रूपी कारण चार्वाक से इस मत मे भिन्न है कि इस दर्शन को यह पर ही निर्भर है । बौद्ध दर्शन के प्रस्तुत पाद' सिद्धान्त यह मान्यता है-शरीर के नष्ट होते ही जीव पचस्कन्ध की समीक्षा करते हुए महावि पुष्पदन्त ने कहा है. --- समुच्चय (रूप, वेदना, सज्ञा, सस्कार एवं विज्ञान) का सतइ सताणइ सगाहय इ, गोवणामि कहि दुद्धइ दहियइ । समूह होने के कारण अन्य रूप धारण कर लेता है। दीवक्खए कहिं लब्भइ भजषु; सच्चउ भास इमिणिरजणु।५२ बौद्ध दर्शन मे यद्यपि आत्मा को समस्त क्रियाओं का "यदि क्षणीवनाशी पदार्थों में कारण-कार्यरूप धारा मूल माना गया है फिर भी क्षणिकवाद के कारण आत्मा प्रवाह माना जाए, वे जैन -- गाय (कारण) से दूध (कार्य) की पृथक एव नित्य सत्ता स्वीकार नहीं की गई ।" इस एव दीपक (कारण) से अजन (कार्य) की प्राप्ति माना जाये, मत का खण्डन करते हुए कहा गया है कि क्षणिकवाद तो प्रतिक्षण गो और दीपक (कारण) के विनष्ट हो जाने सिद्धात के कारण आत्मा की नित्य सत्ता स्वीकार न कर पर दूध एव अजन (कार्य) की प्राप्ति कम हो सकती है। जीव को क्षण-क्षण में परिवर्तनशील माना जाये तो छ: ( शेष अगले अंक मे) सन्दर्भ-सूची १. पातजलि-महाभाष्य । ४. वहो-२।१४।६-७ २.(क) भामह-काव्यालकार, १।१६।२८. ५ परमत्थु हिंसा धम्मुजए, मारिज्जइ जीउ ण जीवकए। (ख) इडियन एन्टिक्नेरी, भाग १० अक्टू०८८ पृ.२८४ जसहरचरिउ, २.१५॥६ ३. जसहरचरिउ (पुष्पदतकृत) संपादक व अनु० डा० ६. ते दालिद्दिय इह उप्पज्जहि, णरय-पडता केण धरिहीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ १९७२. ज्जहिं । ३।८।८।३. पासणाहचरिउ(पद्मकीतिकृत)
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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