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________________ वर्ष ४१, कि०३ अनेकान्त १५वी शताब्दी मे भट्टारको का स्वर्ण युग प्रारम्भ इतना सवेग एव अनुभूतिपरक है कि कोई भी सहृदय हआ। गुजरात एव उत्तर भारत के इन भट्टारकों ने विरह की इस दशकारी वेदना से व्याकुल हए बिना नहीं हिन्दी की सबसे अधिक प्रश्रय दिय।। स्वय उन्होंने एवं रहता। अपने शिष्यो द्वारा हिन्दी मे सैकडो रचनाय लिखवाकर कविवर ठक्कुरसी राजस्थान के ढूढाहड क्षेत्र के कवि हिन्दी भाषा के भण्डार को खूब पल्लवित किया। भट्टारक थे। उन्हें काव्य रचना में अभिरुचि स्वयं अपने पिता सकलकीर्ति के प्रमुख शिष्य ब्रह्म जिनदाम ने ७० से भी धेल्ह से प्राप्त हुई थी। उन्होने १५ कृतियो को छन्दबद्ध अधिक काव्य कृतियो को निबद्ध करके हिन्दी जगत में एक करने का यशस्वी कार्य किया । पचमगति वेलि इनकी नया कीर्तिमान प्रस्तुत किया। उन्होने अकेले ने विविध सबसे लोकप्रिय रचना मानी जाती है जिसकी मैकड़ो विषयक लगभग ५० गम सज्ञक काव्यो का सृजन किया। पाण्डुलिपिया राजस्थान के जैन ग्रन्थागारो मे संग्रहीत लोक भाषा मे तुलसी में पूर्व राम राम सन् १४५१ मे है। इसी तरह कवि की "कृपण छन्द" में तत्कालीन की, रचना कर ब्रह्म जिनदाम ने हिन्दी मे राम काव्य समाज का बहुत मामिक वर्णन हुआ है। इन्ही के छोटे परम्परा का सूत्रपात किया। यही नही रूपक काव्य भाई धनपाल थे जिन्होंने ऐतिहासिक गीतो की रचना की परम्पग मे परमहम रास जैमी विशिष्ट रचन निबद्ध थी। जामेर के सावला बाबा (नेमिनाथ स्वामी) पर करके अध्यात्म रम की धारा बहायी। १६वी शताब्दी में बीमो जैन कवि हए जिन्होने पचासो उन्होने बहुत सुन्दर गीत लिखा है। रचनाओं द्वारा हिन्दी माहित्य के भण्डार हो खूब समृद्ध इसी शताब्दि मे होने वाले आचार्य मोगकीति ने किना। इन शताब्दि में होने वाले कवियो मे बूचराज, यशोधर राम एव प्रन्य ६ रचनाये निबद्ध करने का गोरख छह न, ठक्कुरमी चतुरूमल, आचार्य सोमकीति, ब्रह्म प्राप्त किया। मोमकीति, ज्ञान भूषण एव शुभचन्द्र पने यशोधर, भट्टारक शुभनन्द्र, भट्टारक ज्ञानभूषण के नाम समय के प्रभावक सन्त थे। इनकी हिन्दी कृतियो की उल्लेखनीय है । कविवर बूच राज का अब तक ८ रचनाये रचना मे अभिरुचि निस्सन्देह इम भाषा के प्रति जन रुचि एव ११ गात उपलब्ध हो चुकी: । बूचराज' घुमक्कड की प्रतीक मानी जानी चाहिए। काव थ तथा राजस्थान, हरियाणा, पजाब एव इतर १७वी एव १८वी शताब्दि हिन्दी का स्वर्ण काल रहा प्रदेश म बराबर घूमते रहत थे । इन्होंने रूपक काव्यों को जिसमे पचासो कवि हुए जिन्होने हिन्दी साहित्य के भडार छन्दोबद्ध करने भ सबसे अधिक रुचि ली और सुयण जुझ, को अत्यधिक समृद्ध बना दिया। इन शताब्यिो में भक्ति एव संतोष जयतिलकु, चेतन पुद्गल धमाल जैसी महत्त्वपूर्ण अध्यात्म की दोनो धारायें खूब बढ़ी। चारो ओर हिन्दी कृतियों को छन्दोबद्ध करने में सफल ।। प्राप्त की। छोहल मे काव्य रचनायें होने लगी। इस शताब्दि के प्रतिनिधि कवि की पञ्चसहली गीत एव बावनी बहुत ही लोकप्रिय कवियो मे ब्रह्म रायमल्ल, रूपचन्द, भ० रत्नकीति, कुमुदरचनाए रही है। भाषा एवं शैली दोनो। दृष्टिगा से चन्द, आनन्दधन, ब्रह्म गृलाल बाई अजीतमति, परिमल्ल, दोनो ही रचनाए उत्कृष्ट कृतिया मानी जाती है। प्रोफसर धनपाल, देवेन्द्र, सभाचन्द, भधरदास आदि के नाम उल्लेकृष्ण नारायण प्रसाद "मागध" के शब्दा में बावनी में खनीय है। ब्रह्म रायमल्ल घुमक्कड कवि थे इसलिए जहां वर्वाणत नीति एव उपदेश के विषय है तो प्रानि पर, भी ये जाते, अपनी काव्य रचना से उस ग्राम/नगर के प्रस्तुतीकरण की मौलिकता प्रतिपादन की विशदता एव निवासियो को उपकृत करते रहते थे। ब्रह्म रायमल्ल की दृष्टान्त चयन की सूक्ष्मता सर्वत्र विद्यमान है। इसी तरह रचनायें अत्यधिक सीधी सादी भाषा में निबद्ध है जिन्हें पंच महेली गीत में शृगार रस का बहुत ही सूक्ष्म तथा गाकर पढ़ा जा सकता है। इनकी अब तक पन्द्रह रचमामिक वर्णन हुआ है। वियोग शृगार में विरहिणी नाये उपलब्ध हो चुकी है जो सवत १६१५ से लेकर सवत नायिकाओ के अनुभवों का चित्रण उन्ही के शब्दो मे १६३६ तक की रची हुई है। कवि को भविष्यदत्त चौपई
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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