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________________ दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा किया। कच्चे जो में परिवर्तित नही हो सकते, धी से पुनः दूध नहीं विपरीत ही है।"१२ बन सकता, उसी प्रकार सिद्धत्व को प्राप्त जीव पुन: देह गाय और बैलों को मारा जाता है, ताड़ा जाता है: कैसे धारण कर सकता है ? अक्षपाद (न्याय दर्शन के प्रणेता फिर भी गौवश मात्र को देव कहा जाता है। पुरोहितों कणाद) मुनियो ने शिवरूपी गगनारविंद (आकाश कुसुम- द्वारा याज्ञिको हिंसा (यज्ञ मे पशु-बलिकरण) की जाती असम्भव वस्तु) को कैसे मान लिया? और उसका वर्णन है। एव मृगो को मारकर मृगचर्म धारण करना पवित्र समझा जाता है।" इसी प्रकार पुष्पदन्त ने जसहरचरिउ" ___ अन्य देवताओं को मिथ्या मानने वाले शैव मतवादी मे "चण्डमारी देवी के सामने समस्त प्राणी-युगलों की आकाश को शिव मानते हैं। ये शैब्य अनुयायी कौसाचार बलि देने से आकाशगामिनी विद्या सिद्ध होती है।" इसका का अनुशरण करते हुए अपनी साधना के लिए मद्य, मांस, जो वर्णन किया है वह भी अन्धविश्वास एवं रूढिवादी मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन आदि का प्रयोग करते है।" इन परम्परा पर आधारित है। चूकि इस प्रकार की रूढ़िवादी क्रियाओं को धर्म के प्रतिकूल कहा जाता है। एक पारम्परिक मान्यताओ से जीव हिंसा तो होती ही है शिवपूजन मे बेलपत्री का प्रयोग किया जाता है। अत: किन्तु लोग इसके पक्ष को ही ध्यान में रखते है। बेलपत्री तोडकर शिव को समर्पित (चढाना) करना, इस तरह उपर्युक्त विवेचन मे १०वी शताब्दी के धार्मिक कार्य माना जाता है। किन्तु अपभ्रंश कवि कहता अपभ्रंश कवियों एव आचार्यों ने अपने समय की समस्त धार्मिक, दार्शनिक मान्यताओं का पूर्व पक्ष रोपकर फिर पत्तिय तोडहि तडतडह णाइ पइट्ठा उठ्ठ । उसकी समीक्षा प्रस्तुत की है। इस युग के न केवल अपएवण जागहि मोहिया को तोइइको तुठु ।" भ्र श जैन कवियों ने बल्कि सस्कृत एवं प्राकृत भाषा के "मनुष्य पत्तों को तोड़ता है किन्तु यह नहीं सोचना कवियों एवं आचार्यों ने भी इस प्रकार की सामग्री को कि जिसे मैं तोड़ रहा हूं उसमें भी वही आत्मा है जो अपने काव्य-ग्रन्थों में स्थान दिया है। अत: उस सामग्री मनुष्यों में होती है। इसलिए ऐसे कार्य अनुनित व धर्म- की समीक्षा अलग शोध-प्रबन्ध में की जा सकेगी। सन्दर्भ-सूची १. णायकुमारचरि उ-६८९ ७. तत्वार्थ सूत्र-५।३७ ५. चन्द्रप्रभचरितं-२१७५५० २. सर्व दर्शन संग्रह-(माध्बाचार्य कृत) पृ० ६३-६४ ८. णायक मार चरिउ-६।१०।१२-१३ ३. सुण्णु असेसु वि जइ कहिउ तोकि तहो पचिदिय ६. जम्बूसामिचरि उ.-१०।४।४ वंडणु । १०. सित्थु जाइ कि जनणालत्तहो घड किं पुणु वि जाइ चीवरणिवसणु वयधरणु सतहडी भोयणु सिर मुण्डणु। दुत्त हो। --णायकुमारचरिउ-६।५।१२।१३ सिद्ध भमइ किं भवसंसाए गहियविभुक्क कलेवर ४. किरियावज्जिउ णिम्मलुद्धउ संखपुरिसु किं पयइए भारए । बद्धउ । अक्खवायकणयर भुणिभण्णिड सिवगयणारविद् कि बिणु किरियए कहिं तणुमणव यणइ विणु किरियए वण्णिउ। -णायक मार रिउ-६७१-३ कहिं बहुभवगहण इं। ११. (क) णायक मार चरिउ-६।६।३ बिणु किरियए कहिं बज्झइ पावें, मुच्चकि हो एण (ख) महापुराण-७६७ पलावें॥ १२. पाड दोहा (मुनिराम सिंह कृत)-सम्पादक डा. -णायक मारचरिउ-६।५।६।११ हीरालाल जैन, गोपाल अम्बारास चवेर १९३३, ५. यसस्तिलकचम्पू (दीपिका)-६।१२।४०७ गाथा १५८ ६. वही-णा८६-८७४१५८ ३. णायक मार चरिउ-६१-३,५
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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