SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गतांक से आगे दसवीं शताब्दी के अपभ्रश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा ॥ श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, शोध-छात्र अपभ्रश कवियो ने बोध-दर्शन के शन्यवाद की भी प्रकृति सक्रिय और पुरुष निष्क्रिय है तो वह (पुरुष) भोक्ता समीक्षा की है । जो न सत् हो, न असत् हो, और न सदा- कैसे हो सकता है । आत्मा वद्ध व निर्गुण होने के कारण सत् से भिन्न हो, वह शून्यवाद कहलाता है। अतः शुन्य शरीर के साथ मभोग (सम्बन्ध) रखने वाला कैसे हो एक अनिर्वचनीय तत्व है, जिसका केवल ज्ञान ही है।' सकता है। सर्शशून्यता की कल्पना के अनुसार जगत में कुछ भी सांख्य दर्शन जीव को नित्य मानता है। पुरुष (आत्मा) वास्तविक नहीं है, अतः यदि मभी जगह बौद्ध शून्य का ही द्रव्य है। गुणा व पयायो के समूह को द्रव्य कहा जाया विधान करते है तो उनके द्वारा इन्द्रियो का वमन, वस्त्रो ह। चूकि पयाय आनत्य है, बदलता रहता है, 3 यी है। चूंकि पर्याये अनित्य है, बदलती रहती है, अतः द्रव्य का धारण करना, व्रत-पालन, रात्रि-पूर्व भोजन करना एव अनित्य भी है। ऐसी दशा में पुरुष को मात्र नित्य नही सिर;मुण्डन आदि से क्या प्रयोजन । अतः बौद्धो का शून्य. कहा जा सकता। साख्य दर्शन मे सष्टि-विकास में २५ तत्व वाद भी सार्थक प्रतीत होता। मानता है । जिसे स्पष्ट करते हुए पुष्पदन्त कहते है : भूयई पच पचिगुणइं पचिदियइ पंच तमत्तउ। सांख्य दर्शन की समीक्षा: मणुहंकार बुद्धि पसरू कहिं पाईए पुरिसु स जुन्तउ। साख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि माने जाते है। "पाँच भूत, पाच गुण, पाँच इन्द्रिया, पाच तमन्नाए, ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में ईश्वर कृष्ण के द्वारा :साख्य मन, अहकार और बुद्धि के प्रसार में पुरुष प्रकृति से कारिका' नामक ग्रन्थ लिखा गा था। जो आधुनिक काल परस्पर विरोधी गुणो के होने पर भी कैसे सयोग कर मे साख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। बाद बैठा।" ११वी शताब्दी के पूर्वाधं मे वीरकवि कृत 'जम्बूके आचायो ने भी भारतीन दर्शनों पर टीका-टिप्पणिया सामिचरिउ' नामक ग्रन्थ मे साख्य दर्शन के सत्कार्यवाद की है। (कारण-कार्यवाद)की समीक्षा करते हुए कहा गया है किसाख्य दर्शन की मान्यतानुसार इस सष्टि का निर्माण कज्जही कारण नवर सलक्खणु मिपिंडी त्व घडहो पुरुष (आत्मा--जीव) और प्रकृति (जड़ पदार्थ) के परस्पर अविलक्खणु। सहयोग से हुआ है। साख्य दर्शन प्रकृति को जड़, सक्रिय. किसी भी कार्य का कारण केवल स्वजातीय लक्षण एक तथा त्रिगुणात्मक (सत्व, रज व तम गुणों से युक्त) वाला हाता है। जिस प्रकार घट रूप कार्य का कारण एव पुरुष को चेतन, निष्क्रिय, अनेक एव त्रिगुणातीत उससे (द्रव्यत.) अविलक्षण मृत्पिड ही होता है।" अत: मानता है। निष्क्रिय पुरुष तथा जड़ प्रकृति अकेले सृष्टि आपके सिद्धान्तानुसार अचेतन पृथ्वी आदि भतो से अचेतन का निर्माण नहीं कर "कते । इन दोनो के परस्पर सह- शरीरादि के समान ज्ञान भी अचेतन ही होना चाहिए। योग व सयोग से ही सृष्टि का निर्माण सभव है। सांख्य- परन्तु एसी वास्तविकता नहीं है, क्योकि ज्ञान एक चेतन वर्शन के उक्त मत पर आपत्ति करते हुए महाकवि पूष्पदन्त तत्व है ओर ज्ञप्ति-जानना यह चेतन की ही क्रिया है । कहते है कि-"क्रिया रहित निर्मल ५ शुद्ध पुरुष, प्रकृति अन्य मतों व दर्शनों की समीक्षा:के वन्धन मे कंस पड़ जाता है ? क्रिया के बिना मन, उपयुक्त दार्शनिक मतो के अतिरिक्त अपभ्रश कवियो वचन व काय क्या स्वरूप होगा । बिना क्रिया के जीव ने न्याय, वैशेषिक, शैव दर्शन की भी समीक्षा की है। (पुरुष) पाप से कैसे बधेगा? और कैसे मुक्त होगा?' तथा समाज में व्याप्त कुछ मिथ्या धारणाओं एवं अन्धसोमदेव सूरि ने भी उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा विश्वासो पर भी चर्चा की है। न्याय एव वैशेषिक दर्शन है कि-जो (प्रकृति) जड़रूप है वह सक्रिय एव जो की चर्चा कवि ने अवतारवाद की आलोचना करते हुए इस (आत्मा) चेतन है वह निष्क्रिय कैसे हो सकता है। यदि प्रकार की है--"जिस प्रकार उबले हुए जौ के दाने पुनः
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy