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१४, वर्ष ४१, कि०२
अनेकान्त प्रांसु धूसर रत्नीष निध्यानाद् ऋद्धि सत्तमाः। मे पैदा होने वाले कभी प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी नहीं हो नैव प्रादुर्भविष्यंति मुनयः पचमे युगे ॥७३॥ सकते । इसी तरह पचम काल में उत्पन्न कोई मुनि कभी
ऋधिधारी नहीं हो सकते। जैन नियम त्रिकालाबाधित धूल से मनिन रत्नराशि देखने का फल यह है कि -
है किसी की लिहाज नहीं करते । लिहाज मानने लगेगे पंचम काल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नही होगे ।) तोसिद्ध जीव भी कभी न कभी ससार मे आने लगेगे
इसमे और ऊपर जो छ: प्रमाण दे आए है उनमें किन्तु ऐसा अनन्त कल्पकाल बीतने पर भी नहीं होने कही भी पंचमकाल में ऋद्धि निषेध के कथन को न तो वाला । नियम नियम हैं घर का राज नही । फड़कुले जी सामान्य बताया है न प्रायिक (अधिकाश रूप) न आप- सा० लिखते है---"पचम काल मे ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त वादिक । फडकुले जी ने अपने मन से ही यह सब लिख दुर्लभ है ।" समीक्षा-पूर्वकाल मे भी ऋद्धिया तो सर्व दिया है इसी से आगे उन्हे लिखना पड़ा है कि--इस सुलभ नहीं थी दुर्लभ ही थी। इस काल में तो दुर्लभ क्या सम्बन्ध में हमारा कोई आग्रह नहीं है । अगर इस तरह अत्यन्न असम्भव है। इसी से महापुराण में "एव" लगा नियमो और सिद्धांतों को सामान्य करने लगेगे तो फिर कर निषेध किया हैं। तो स्वप्न फलों मे जो इम काल मे अवधि-मनः पर्याय विदेह भारत से अत्यन्त दूर है वहां की भाषा, रहनऔर केवल ज्ञान का भी निषेध किया है वह भी किन्ही
या ह वह भा किन्हा सहन, जल-वायु, भोजन-पान, आयु, शरीराकार आदि को होने लगेगा किन्तु ऐसा नहीं ये तीनो प्रत्यक्ष ज्ञान आदि सब यहा से भिन्न है तब कथानुसार कुन्दकुन्द वहां इस काल में किसी को नहीं होते। यहा यह शका नही ७ दिन तक कैसे रहे ? और भी कथादि मे दिया कुन्दकुंद करना चाहिए कि फिर पचम काल में गौतम, सुधर्मा, का जीवन-चरित्र कितना कल्पित, असगत तथा अयुक्त है जम्बू ये ३ केवली और श्रीधरादि अननुबद्ध केवली कैसे आगे क्रमश: उसकी समीक्षा को जाएगी। इसके सिवा, हए ? समाधान-ये सब चतुर्थ काल के अन्त में पैदा हुए स्त्री मुक्ति की तरह शूद्र मुक्ति का भी कुन्दकुन्द स्पामी ये और पवम काल के आदि में मुक्त हो गए । पचमकाल ने निषेध किया है यह उनके ग्रथो से स्पष्ट किया जाएगा।
(पृष्ठ ११ का शेषांश) अन्यथा पूरा आगम ही अशत: के स्थान पर पूर्णतः विलुप्त एक जातीय प्राकृत भाषा के हैं, हम तब भी नही मानेंगे। हो जाता। हम नहीं चाहते कि बाद में कभी नारा लगने हमारी दष्टि से तो वे उसी जैन-शौरसेनी के हैं जिसमें को सम्भावना बने कि कभी कोई अमुक महान् हुए जिन्होने सभी रूप समाहित होते है और यही आर्ष-भाषा का आगम या कुन्दकुन्द को ठीक किया--भले ही वर्तमान स्वरूप है इसे बदल कर शुद्ध करने के गीत गाना मिथ्या में कुन्दकुन्द की जय बोल-बुलवाकर यह सब बदलाव है। किया जा रहा हो।
समय ऐसा आ गया है कि अब अर्थ-दाता दानी को जब कोई किसी की प्रशंसा करता हो, उसे बढ़ाता भी सोचकर सावधान होना होगा कि उसका द्रव्य आगमहो, तब हमे हर्ष होता है : पर, जब कोई व्यक्ति अति- वंस में लग, कही प्रश्न तो नही पूछ रहा-कि क्या तेरी शयोक्तियों में पूर्वाचार्यो-विद्वानो को पीछे धकेल झूठी कमाई न्याय नीति की थी? क्योंकि अन्यायोपाजित द्रव्य ठकुरसुहाती करता हो तब हमे कष्ट होता है। ऐसा एक कभी सत्कार्य में नही लगता-ऐसा सुना गया है। लोगों ही क्यों; यदि मिलकर सभी विद्वान भी कहें कि मूल को इन बातों पर पूरा ध्यान देना चाहिए । आगम गलत है और वे बदले जा सकते है--या वे किसी