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________________ आचार्य अमितगति : व्यक्तित्व और कृतित्व Dकु० सुषमा जैन, सागर सरस्वती देवी के साधक, आराधक, और उपासक पलालमत्यस्य न सारकांक्षिभिः, आचार्य अमितगति ने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा से मालव प्रदेश किमत्र शालिः परिग्रह्मते जनः॥ के परमार वशी राजा मुंज की सभा को सुशोभिन किया (अमितगति श्रावकाचार, प्रशस्ति ५) है। श्री अमितगति मात्र आचरण पक्ष के धनी नही थे, अर्थात-यदि इस ग्रन्थ मे कुछ सिद्धान्त-विरुद्ध कहा वरन वे दार्शनिक महाकवि, अप्रतिम-चितक, धर्मतीर्थ __ गया है, वह विद्वज्जनो को विशुद्ध करके ग्रहण करना प्रणेता, महान उपदेशक, आगम-ज्ञाता, वैयाकरणिक और चाहिए। जिस प्रकार धान्य को ग्रहण कहने के इच्छुक समाज सुधारक भी है, इन्होंने दशमी शताब्दी में व्याप्त पुरुष लोक में क्या भूसा छोड़कर धान को ग्रहण नही करता सामाजिक धार्मिक परिस्थितियो पर विजय प्राप्त करके हैं ? अतः छिलका छोड़कर शालि ग्रहण करते है। युगानुरूप अपनी देशना से मानवमात्र को धर्मोन्मुख किया पूर्णत: आगमानुकूल ग्रन्थ-रचना के उपरान्त उपर्युक्त __ कथन आचार्य के व्यक्तित्व की महानता का परिचायक आचार्य अमितगति गम्भीर प्रकृति के निरभिमानी, है। विवेकी, नि.स्पृही, आत्मानुभवी। स्व-पर कल्याण मे निरत कथनी, करनी और लेखनी से सुप्रभावक आचार्य रहे हैं। आचार्य जी की गम्भीर प्रकृति अग्रलिखित पद्य में अमितगति का जीवन साहित्य साधना के लिए समर्पित अवलोकनीय हैं था, इन्होने अपनी परिष्कृत बौद्धिक प्रतिभा द्वारा विविध बिबुध्य ग्रहीय बुधा मनोदितं, विषयो मे ग्रंथ प्रणयन किये हैं। जिसमे अज्ञानी जीवो को शुभाशुभ ज्ञास्यथ निश्चितं स्वयम् अज्ञान अन्धकार नाशक ज्ञान का स्वरूप और महत्ता का निवेद्यमान शतशोऽपि जानते, उपदेश, मात्र ज्ञान को सब कुछ मानने वालों को रत्नत्रय स्फुट रस नानुभवन्ति न जनः ॥ का निरूपण, विषय-भोगो में आसक्त मानवो को विषय(धर्मपरीक्षा, प्रशस्ति १५) भोगो की अनासक्ति हेतु उसकी हेयता का प्रतिपादन, अर्थात हे विद्वज्जन ! मैंने जो यह कहा है उसे जातिगत अहकारी जीवों को उसकी नि:सारता का उपदेश जानकर आप ग्रहण कर ले, ग्रहण कर लेने के पश्चात् तथा मात्र बाह्य आडम्वर में आसक्त मानवो को आध्याउसकी श्रेष्ठता अथवा अश्रेष्ठता आप स्वय जान लेगे। त्मिक अथवा आत्म आराधना की प्रेरणा पद-पद पर द्रष्टव्य जिस प्रकार मिश्री आदि वस्तु का रस बोध कराने पर है। मनुध्य सैकड़ों प्रकार से जान तो लेते है, परन्तु प्रत्यक्ष में माथुर संघ के दिगम्बर जैनाचार्य अमितगति नैतिक उन्हें उसका अनुभव नही होता है-वह अनुभव ग्रहण करने नियमो, लोकबुद्धि से पूर्ण हितकर उपदेशों एव सारगभित पर ही होता है। बिवेचनों के निरूपण में विशेषतः सिद्धहस्त हैं। भोगइसी प्रकार आचार्य की निरभिमानिता एव नि.स्पृहता विलास और सांसारिक प्रलोभनों की निन्दा करने में वे निम्नलिखित पद्य मे मिदर्शनीय है अधिक वाक्पटु हैं। गृहस्थ और मुनियों के लिए आचारयत्र सिद्धान्तविरोध भाषित, शास्त्र के नियमानुसार जीवन के प्रधान लक्ष्य को प्रति. विशोध्य सङ्ग्रामिम मनीषिभिः। पादन करने का कोई भी अवसर वे हाथ से नहीं जाने
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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