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________________ "दसवीं शताब्दी के अपभ्रश काव्यों में दार्शनिक समीक्षा" 0 श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, शोध-छात्र जन-जीवन की आचार संहिता का प्रतिविम्ब तत्का- प्राच्य विद्याओं के शोध-परक विश्लेषण एवं गहन कालीन साहित्य मे देखने को मिलता है। साहित्य मानवीय अध्ययन से यह सिद्ध हो गया है कि अपघ्रश अन्य भाषाओं विचारों भावनाओं एवं आकांक्षाओं का मूर्तरू । है। की तरह एक स्वतंत्र भाषा थी। इसका उद्भव ईसा को भारतीय इतिहास व संस्कृति के निर्माण, विकास व तीसरी शताब्दी' एव विकास ईसा की छठी शताब्दी से संरक्षण के क्रम में जैनधर्म-दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका माना जाता है।' अपभ्र श साहित्य का पूर्वमध्यकाल (ई. रही है। भागीय आध्यात्मिक पृष्ठभूमि मे जैनधर्म दर्शन ६०० से ई० १२०० तक) साहित्य-सृजन का स्वर्ण युग उत्पन्न हुआ, विकसित हुआ और समृद्ध हुआ। जनसाहित्य माना जाता है। देवसेन कृत सावयधम्मदोहा, पद्यकीतिकृत सप्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय पासणाहचरिउ, पुष्पदन्तकृत महापुराण, णायकुमारचरिउ, भाषाओ में भी लिबाहुना प्राप्त होता है। मध्ययुगीन जैन जमहरचरिउ, हरिषेणकृत धम्मपरिक्खा मुनिकन कामरकृत साहित्य धामिक एव दार्शनिक मान्यताओं के परीक्षण का करकण्डचरिउ तथा मुनिरामसिंहकृत पाहुड़दोहा आदि युग था : अत: इस दृष्टि मे १० वी शताब्दी के जैनाचार्यों १० वी शताब्दी की प्रमुख कृतियां है। इसमें जैन धर्म एवं ने अपभ्र श साहित्य मे नत्कालीन धार्मिक व दार्शनिक दर्शन तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, बाचारमीमांसा, प्रमाणतत्वो को प्रतिपादन किया है। उन्होने : शनिक तत्वो के मीमांसा,अहिंसा, कर्म, पुनर्जन्म एवं मोक्ष विषयक सामग्री मण्डन ग खण्डन की परम्परा क. अनुसरण किया है। को प्रस्तुत किया गया है। उन्होने दार्शनिक निबन्ध में १०वी शताब्दी के अपभ्र श वैदिक दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार एवं यज्ञ साहित्य मे निपादित धमिक व वानिक तत्वों का प्रधान क्रियाओं, दर्शन के भौतिकवाद एवं तत्त्वमीमांसा, समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तु। करने का प्रयत्न किया बौद्ध दर्शन के आत्मा, निर्वाण, क्षणिकवाद व प्रतीत्यसमगया है। त्पादवाद, सांख्यदर्शन के पुरुष व प्रकृति के स्वरूप एवं मध्य ग वैचारि कान्नि का युग था । इस युग के सम्बन्ध तथा कारण-कार्यवाद (सत्कार्यवाद) आदि प्रमुख माविंग , सम नत धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन इन काव्यों में प्राप्त है। वैशेषिक, विरोध तया वैसनर के सदर्भ प्राप्त होते है। धर्म एव न्याय, मीमासा, शंव आदि दर्शन तथा अन्य प्रचलित दर्शन के क्षेत्र पनी धनिकावर्णनि अवधारणाम्रो मान्यताओं का भी समीक्षात्मक इस शताब्दी के अपभ्र श की पुष्टि एव विगंधी अधारणाओं के खण्डन की प्राचीन कवियो ने किया है। परम्परा इस युग के जनाचार्यो मे भो परिलक्षित होती है। जैन धर्म एवं दर्शन : उन्होने अन्य कारतीय दर्शनों के साथ-साथ सामाजिक जैनधर्म विरक्तिमूलक सिद्धान्तों पर आधारित है। अन्धा श्वानो, बाह्य आडम्बरों व दूषिा धारणाओ पर इसीलिए अपभ्र श कवियो ने श्वेतबाल, टूटता हुआ तारा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की। किन्तु अनेकान्त और स्याद्वाद एव ामवासना हेतु परपुरुष का ससर्ग आदि प्रसंगों को जैस सिद्धान्तो के परिप्रेक्ष्य में उन्हे नाप-तौलकर समन्व- वैराग्य का कारण बताया है। जैनधर्म एवं दर्शन के या मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करना इन जैनाचार्यों की अपनो अहिंसा, आचारमीमांसा, तत्वमीमासा, ज्ञानमीमांसा, कर्म, विशेषता कही जा सकती है। पुनर्जन्म, आत्मा, मोक्ष व अनेकान्तवाद आदि सिद्धान्तों
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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