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________________ २१ वर्ष ४१, कि०२ भनेकान्त को व्यापक रूप से इन काव्यों में प्रस्तुत किया गया है। द्वारा किया गया है। अपभ्रंश महाकवि पुष्पदन्त ने कहा वैदिकी हिंसा के निरसन के संदर्भ मे अहिंसा सिद्धांत है कि :की महत्ता प्रस्तुत की गई है।' जसह रचरिउ में वर्णित जहिं गिद्द ण भुक्ख ण भोयरइ, स्वप्नदोष को मिटाने के लिए जब माता ने नाना जीवों देहु ण पंचिदियह सुहु । की बलि करने को कहा तब यशोधर उत्तर में हिंसा की जहिं कहि मि ण दीसइ णारिमुहु, निन्दा करते हुए कहता है तद्वो देसहो लहु लेहि महु ॥" पाणिवहु भडारिए अप्पवहु, जहाँ न नींद हो, न भूख हो, न भोगरति हो, न कि किज्ज इ सो दुक्कियणिवहु । शारीरिक शुद्धि हो और न ही नारी दर्शन हो।" अर्थात् कहिं चुक्कइ माणउ पसु हरिणवि, ऐसी अवस्था मोक्ष प्राप्ति पर होती है। अत' वह (कवि) पावेण पाउखज्जइ खणिवि ॥' मोक्ष की कामना करता है । मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न"प्राणियों का बध आत्मघात ही है। अतएव इस रूपी प्रथम सोपान का आश्रय अति आवश्यक है। इस प्राणी का हिंसा रूपी दुष्कर्म का पूञ्ज क्यों एकत्रित किया युग के अपभ्र श कवियों ने जैनधर्म व दर्शन के आत्मा, जाये ? पापी को उसका ही पाप खा जाता है।' अहिंसा मोक्ष कर्म" व पुनर्जन्म" आदि सिद्धान्तो का भी वर्णन को जगत में परमधर्म व परमार्थ कहा गया है। अतः किया है। जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। हिंसक प्राणी नीच, वैदिक दर्शन की समीक्षा: दरिद्री व नरकगामी होते हैं। वैदिक दर्शन आस्तिक दर्शन है । क्योंकि वह जगत मे धर्म श्रमण व श्रावक के भेद से २ प्रकार का कहा वेदों को ही सत् शाश्वत व मूल मानता है।" उसके मतागया है। इसी प्रकार व्रत के भी श्रमणव्रत (महाव्रत) नुसार वेदों को किसी ने नहीं बनाया। अतः वेद अपौरुषेय तथा श्रावक या ग्रहस्थव्रत (अणुव्रत) ये दो भेद होते हैं। (स्वयम) हैं । वेदों की ऋचाओ को भी जगत में किसी ने इन व्रतों को श्रमणो द्वारा सूक्ष्मरूप (बडी कठोरता पूर्वक नही बनाया। किन्तु जैनाचार्यों को "वेद अपौरुषेय है" पालन करने के कारण महाव्रत व श्रावको द्वारा स्थूलरूप उनकी यह बात उचित प्रतीत नही हुई। इसीलिए उन्होंने से पालन करने के कारण अणुव्रत कहते हैं। श्रावक धर्म कहा है कि :हेतु जैनधर्म १२ व्रतों (५ अणुव्रत, ३ गुणवत व ४ शिक्षा- ण हि सयमेव थंति पंतीए णहे मिलिऊण सद्दया ।" व्रत) के पालने का विधान है। इसी प्रकार आचार "शब्दों की पक्तिया स्वय आकाश में मिलकर स्थित मीमांसा के अन्तर्गत १२ तप, ५ आचार, त्रिरत्न, ५ नही रह सकती।" बिना जीव के कही (प्रमाणभूत ) शब्द समितियाँ, ३ शल्य और सलेखना आदि सिद्धान्तो का भी की प्राप्ति हो सकती है ? बिना सरोवर के नपा कमल पालन करने व चार कषाय तथा सप्तव्यसनो आदि के कहाँ से उत्पन्न हो सकता है ? अत: जगत मे वेद प्रमाण सर्वथा त्यागने का निर्देश दिया गया है।" (अपौरुषेय) नही हो सकते ।२० । गुण व पर्याय से युक्त वस्तु द्रव्य कहलाती है।" वस्तु वैदिक दर्शन में पशुबलि व मांस भक्षण को भी 'मोक्ष या पदार्थ मे अनेक धर्म या गुण होते हैं। आचार्यों ने प्राप्ति का साधन' कहा गया है। यदि इस कर्म से भी पदार्थ की अनेकान्तिकता सिद्ध करने के लिए सभंगी मोक्ष की प्राप्ति होती है तो फिर धर्म से क्या ? शिकारी या स्याद्वाद जैसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। वस्तु के की ही पूजा (सेवा) करनी चाहिए। याज्ञिकी की हिंसा गुण विशेष को प्रमुख मानकर अन्य गुणों को गौण मानना मांस भक्षण तथा रात्रिभोजन को पुण्य का प्रतीक मानने ही स्याद्वाद है। आचार्य पुष्पदन्त ने अपन काव्यो मे इस वाले वेद पुराण सम्बन्धी मत की समीक्षा करते हुए जैनासिद्धान्त का उल्लेख किया है।" इस जगत को नश्वर चार्यों ने कहा है कि-मगों का आखेट करने वाले जो मानते हुए ससार के प्रपंच को त्यागने का निर्देश आचार्यों मांस-भक्षण से अपना पोषण करते हैं, वे अहिंसा क
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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