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________________ जैन कवि विनोदीलाल को अर्चाचत रचनाएँ 0 डा० गंगाराम गग विनादीलाल शहिजादपुर के गर्ग गोत्रिय अग्रवाल जैन थे। दान भी हाथी, घोड़े और सोने तक का कर्म काण्डी थे। डॉ. प्रेमसागर जैन ने अपने शोध प्रबन्ध हिन्दी जैन साधुओं और ब्राह्मणों को दिन-प्रतिदिन अच्छे भोजनों से भक्तिकाव्य और कवि एवं पं० परमानन्द शास्त्री ने अपने इसलिए प्रसन्न रखा जाता था कि सामान्य निर्धन जनता एक लेख 'अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान' में कवि को वे धर्म के भुलावे मे फंसाये रखें। इस तरह धर्म, धन की सात रचनाएं बतलाई हैं-भक्तामर कथा, सम्यक्त्व एवं निरकुश सत्ता का त्रिगुट अधिसख्या जन समूह को कौमुदी, श्रीपाल विनोद, राजुल पच्चीसी, नेमि व्याह, अपने शिकजे में जकड़े हुअा था । ऐसे वातावरण में बड़ेफूलमाला पच्चीसी, नेमिनाथ का बारहमासा । चाकसू वड़े भोजों और दानराशि का विरंध करके सामान्य जन (जयपुर) के कोट नंदिर मे विनोदीलाल की श्रेष्ठ काव्य कृति के प्रति दया रखने का निर्देश एक उल्लेखनीय प्रसंग है'नेमिनाथ नव मंगल' दो प्रतियों में प्राप्त है। अग्रवाल कहा भूमिवान, अस्ववान कहा कंचन के दान महा, जैन मन्दिर कामां (भरतपुर) में विनोदीलाल की कुछ कहुं मोक्ष पाइहै। महत्त्वपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई है-सुमति कुमति को झगरी, ग्राह्मण जिमाये कोटि जाप के कराये, लख तीरथ के नहाये, चेतन गारी (१७४३) नवकार मंत्र की महिमा, रेखता, का सिपाई है। चुनड़ी, नेमिनाथ की विनती आदि । कामा में प्राप्त इन घरम न जानत, बखानत मन में प्रानत, रचनाओं का सम्वादात्मकता बाह्याचार-खडन और भाषा जो सुगुरु बताई है। की दृष्टि से विशेष महत्व है। कहत 'विनोदीलाल' करनी सब विकार, जपो एक ठीक बया, 'नवकार मंत्र महिमा' में यद्यपि अभी ३३ कवित्त ही बया नहीं पाई है। प्राप्त हुए हैं, किन्तु उनके भाषा-प्रवाह एवं काव्य-सौष्ठव बाह्याचार का विरोध करते हुए भी जैन कवि से ऐसा लगता है कि कुछ अधिक कबित्त होने चाहिए। विनोदी लाल यह अनुभव करते हैं कि यदि भाव को शुद्ध नवकार मंत्र महिमा मे जिनेन्द्र के नाम-स्मरण के महिमा- और मन को निर्विकार रखते हुए यदि अष्ट द्रव्य से पूजा गान की अपेक्षा कवि का अनैतिकता के प्रति तीखा स्वर की जाय तो उपयोगी है । भक्त को प्रभु पर चन्दन, पुष्प, अधिक महत्वपूर्ण है। अपने समय में व्याप्त तीर्थ-स्नान, अक्षत चढाते समय शान्ति, यश तथा अक्षयता का बोध शख वादन, बाहरी वेशभूषा, गोरखपंथियों के काया-कष्टो होना चाहिए। दीप जलाते समय मोह-नाश तथा धूप से विनोदी लाल को कबीर की सी चिढ़ है। इसीलिए चढ़ाते समय वसु कर्मों के विनाश की ओर दृष्टि रहनी उनकी वाणी मे उग्रता आ गई है चाहिए। भगवान की आरती उतारना, मन्दिर में नत्य द्वारिका के म्हाये काहा, अंग के बगाये कहा। करना अथवा दुन्दुभी बजाना तभी सार्थक है जब उद्देश्य संख के बजाये काहा, राम पाइयतु है। प्रेरित हो:जहा के बढ़ाये काहा, भसम के चढ़ाये कहा। नीर के चढ़ाये नोर भववष पार हजे, घुनी के लगाये काहा, सिव ध्यायतु है॥ चन्दन चढ़ाये दाह दुरति मिटाइये। कौन के फराये काहा, गोरख के ध्याये कहा। पुरप के चढ़ाये पूजनीक होत जग माहि, सींगी के सुनाये काहा, सिद्ध ल्याहतु है। प्रक्षत चढ़ाये ते सुप्रषं पर पाइये। . . बया धर्म जाने विनु, अग्या पहिचाने बिनु । चर के चढ़ाये क्षुधा रोग को विनाश होत, कहैयतु "विनोदीलाल' मोष पाइयतु है ॥३३॥ दीप के चढ़ाये मोह तमको नसाइये। उत्तर मध्यकाल मे खुशामदप्रिय सामन्त और सम्पन्न धूप के चढ़ाये बसुकर्म को विनास फल, लोग अपने चाटुकारों एवं धर्मान्धो को ही दान दिया करते अर्थ पूजेत परम पद पाइये।
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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