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________________ १४, वर्ष १, कि०४ अनेकान्त घेत्तुं पाठ स्वीकृत हैं, उपलब्ध हैं। उनके अनुसार ही इन ग्रंथों ३७५-३८१ विणिग्गहिउँ विजिग्गहिदूं का सम्पादन होना चाहिए; सिद्धान्त मोह या सम्पादन सक्कइ सक्कदि मोह के कारण नही।"-हमारी दृष्टि से तो समयसारादि ६४ ४०६ पित्तं के शुद्धिकर्ता (?) उक्त व्याकरण ग्रन्थ को अवश्य ही ६२ ४१५ ठाही ठाहिदि प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक और क्रमबद्ध ज्ञाताओं द्वारा २ ४१५ होही होहिदि लिखा गया मानते होंगे ? ग्रन्थ को मुनिश्री का शुभाशी- इसके सिवाय इम व्याकरण मे एक-एक शब्द के वर्वाद भी प्राप्त है। अनेक रूप भी मिलते है, जिन्हें झुठलाया नही जा सकता। उक्त स्थिति में भी यदि जैन आगमों की भाषा शोर. तथाहिसेनी है और उसे व्याकरण-सम्मत बनाने का प्रयास किया पृष्ठ १४ लोओ, लोगो। पृ. ३६ लोअ । जा रहा है, तब संशोधित-समयसार की गाथाओं और उक्त पृष्ठ ८८, ९० लोए व्याकरण पुस्तक मे उदधत पाठो में शब्दरूप-भेद क्यों? पृष्ठ २५, ६१,८८ पुग्गल । पृ. ३६ पोग्गल । अब तो वदलाव की उपस्थिति मे यह नया मन्देह भी हो पृष्ठ ७७ हवदि, हवेदि, हवइ, होदि । पृ. ८३, ६० होइ। रहा है कि उक्त व्याकरण-पुस्तक मे दिये गए समयसार के पृष्ठ ७७ ठादि, ठाइ, ठवदि, ठवेदि । पाठ ठीक है या कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित (सशो पृष्ठ ६०,७६ भणदु, भणउ । धित) ममयमार के पाठ ? यदि दोनो ही ठीक है तो बद पृष्ठ ५५ भणदि, भगइ, भणेदि, भणेइ । लाव क्यो ? क्या व्याकरण पुस्तक गलत है ? पृष्ठ ६३ गदो, गओ, गयो। पाठकों की जानकारी के लिए दोनों ग्रन्थो के कुछ । पृष्ठ ६३ जादो, जाओ, जायो। रूप नीचे दिए जा रहे है :-- पृष्ठ ६४ भणिऊण, भणिदूण । व्याकरण समयसार का उक्त व्याकरण मे समयसार पृष्ठ ६३ जाण । का पृष्ठ गाथा क्रम उद्धृत समयसार (कुंदकुद भारती) खेद तो तब होता है जब मीरा, तुलसी, सूर, कबीर जैसों की जन-भाषा में निबद्ध रचनाओ को सभी लोग मान देने-उनके मूल रूपो को संरक्षण देने में लगे हो, तब कुछ इक्को एक्को चुक्किज्ज चुक्केज्ज लोग हमारे महान् आचार्यों-कून्दकुन्दादि द्वारा प्रयुक्त आगमो की व्याकरणातीत जन-भाषा को परवर्ती व्याकरण मुणेदव्वं ८२ एण्ण में बाँध आगम को विकृत, मलिन और सकुचित करने मे करितो लगे हो। गोया प्रकारान्तर से वे भाषा को एकरूपता देने करतो करिज्ज करेंज के बहाने-यह सिद्ध करना चाहते हों कि दीर्घकाल से हेउ चले आए भगवान महावीर व गणधर द्वारा उपदिष्ट और १८७ रुधिऊण रुधिदूण पूर्वाचार्यों द्वारा व्याकरणातीत जनभाषा मे निबद्ध धवला २०७ भणिज्ज भणेज्ज आदि जैसे आगम भी भाषा की दृष्टि से अशुद्ध रहे हैं २६६ लोय-अलोय लोग-अलोग और उन्हे शुद्ध करने के लिए शायद किन्ही नए गुणधर, २६६ चित्तव्वो घेत्तव्यो कुंदकुंद, यतिवृषभ और वीरसेन जैसों ने अवतार ले लिया ३०२ कुण हो । जबकि जैनधर्म मे 'यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ३०४ होइ होदि भारत' रूप अवतार सर्वथा निषिद्ध है। और जब जैन विमुंचए विमुचदे शौरसेनी का रूप जन-भाषा के रूप में पूर्व निर्णीत हैसुणिऊण सुणिदूण "The Prakrit of the Sutras, The Gathas मुणेयव एदेण EE हेद कुणदि २७३
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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