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१६, वर्षे ४१, कि०३
अनकन्त
दि. सिद्धान्त ही लुप्त हो जायगा। भला यह भी कैसे जगम्मोहन लाल शास्त्री अंक दिनांक २६-७-८२ में प्रकाश सम्भव है कि हम सम्यकचारित्र मे तो सम्यग्दर्शन को डाल चुके है--उन पर विचार किया जाना चाहिए। हम अनिवार्य कारण माने और मिथ्याचारित्र मे मिथ्यादर्शन नही चाहते कि -पूर्वाचार्य की 'तत्र भावबन्धः क्रोधाद्याको कारण न माने। अनन्तानबन्धी (जो स्वयं चारित्र- त्मकः, नस्यहेतुमिथ्यादर्शनम्' घोषणा को अपने तर्कों की मोहनीय की प्रकृति ही है) को प्रकारान्तर से (मिथ्यात्वो- कसोटी पर झुठलाया जाय और उस सबके प्रति जनता त्पादक मान लेने के कारण) मिथ्याचारित्र के उत्पादन का मे भ्रम पैदा होने जैसा कोई कदम उठाया जाय । मूल कहें ?
___ कोई कितने भी तर्क क्यो न दे, हम आगमको मूल घोषणा उक्त विषय मे स्व०प० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री को गलत मानने को तैयार नही-'तस्यहेतुमिथ्यादर्शनम्।' जैन सन्देश के अंक दिनांक २३-१२-८२ में और मान्य पं०
वीर सेवा मन्दिर, दरियागज, नई दिल्ली-२
(पृष्ठ १२ का शेषांश) मिथ्यात्व के उदय आने पर मिथ्यात्व गुण स्थान होता है। की पुस्तक के द्वारा पुन: इसका यह प्रचार किया जा रहा इससे स्पष्ट होता है, दोनों का पृथक्-पृथक् कार्य है । ऐसी है कि मिथ्यात्व अकिंचित्कर है। अब प० कैलाशचन्द्र जी अवस्था मे अनन्तानबधी को मिथ्यात्व का उत्पादक कहना तो है नही, मुझे बड़ा आश्चर्य है कि अन्य विद्वान क्यो ठीक नहीं बैठता और गोम्मटसार जीवकाण्ड की २८२ मौन साधे बैठे हैं ? उनको इसका खुलकर आगमानुकूल गाथा में भी कहा है-सम्यक्त्व, देश चारित्र; सकलचारित्र, विरोध करना चाहिए। यथाख्यात चारित्र को घातती हैं।
कैसी विडम्बना है कि एक ओर तो 'अकिचित्कर' पुस्तक सम्यक्व के घात होने के पश्चात् मिथ्यात्व के उदय
पृ०११ पर यह स्वीकार किया गया है कि 'प्रथमगुणस्थान आने पर ही मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। कहाँ तक कहें
में मिथ्यात्व के उदय मे बँधने वाली मात्र १६ प्रकृतियां ही समयसार मे भी कहा है कि जैसा वस्तु का स्वभाव कहा
ह' है' और दूसरी ओर यह कहा जा रहा है कि मिथ्यात्व से हआ है वैसे स्वभाव को नहीं जानता हुआ अज्ञानी (मिया- बन्ध नही होता--'कषाय से ही मिथ्यात्व का बन्ध'-पृ०८. दष्टि) अपने शुद्ध स्वभाव से अनादि ससार से लेकर च्युत a ntierra की जाती'. हआ ही है। इस कारण कम के इस उदय में जो राग, अकिचित्करता'-१० ६२. पाठक सोचें कि क्या यह स्व. वेष, मोह (मिथ्यात्व आदिक) भाव हैं उनसे परिणमता वचन वाधित नही? अज्ञानी राग, द्वेष, माह अादिक भावो को करता हआ
जब आगम में २५ प्रकृतियों (अनतानुबन्धी ४, स्त्यानकर्मों से बधता ही है ऐसा नियम है।
गद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, मुझे वर्तमान उग्रस्थो के तर्क वितर्क से पदार्थ निर्णय
अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यगमें उतना विश्वास नही जपता, जितना प्राचीन आचार्यों
गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, सस्थान ४, सहनन ४) के के वाक्यों में विश्वास है। अत: यदि किसी ग्रन्थ म ये
वध का विधान अनतानुवधी कषाय की मुख्यता में है और पंक्ति स्पष्ट लिखी हो कि मिथ्यात्व के बध में अनन्तान
इनमे मिथ्यात्व को गणना नही है। तब क्या अकिचि कर का बंधी कषाय कारण है, तो विचार किया जा सकता है।
प्रचार मिथ्यात्व को बढावा देने के लिए किया जा रहा है? अभी तो हमारे समक्ष पूर्व आचार्य जी श्री विद्यानन्दि की
क्या इससे कुदेव-देवियो के पुजापे को बढ़ावा न मिलेगा? यह पंक्ति विद्यमान है"तत्र भाव बध. क्रोधाद्यात्मकस्नस्य हेतुमिथ्यादर्शनम्।" जब मिथ्यात्व गुणस्थान मे चारों प्रत्ययों से वध का -आप्न परीक्षा २१
विधान है-'चदुपच्चइयो वंधो पढमे'-गो. कर्म. ७६७. तब इस प्रकरण के स्पष्टीकरण में स्व. ५० कैलाशचन्द्र मिथ्यात्व को उन प्रत्ययो से कैसे छोडा जा सकता है ? जी ने सन् १९८२ में एक लेख लिखा था, उसके पश्चात्
पाठक विचारें और धोखे मे न आयें। यह चर्चा बन्द-सी हो गयी थी। अब अकिचित्कर नाम
२/३८, अंसारी रोड, दिल्ली