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________________ जरा सोचिए विद्वानों की सूझ है? जब कि जैनी तो जैन-कथानक इसका तात्कालिक फल यह हुआ कि लोगों की (प्रथमानुयोग) को अप्रमाण मानेगा ही नहीं और रुचि प्रामाणिक प्राचीन शास्त्रों से हटकर नित नवीन-२ मानेगा तो वह श्रद्धानी नही होगा। इसके सिवाय हमारी रचनाओं के पढने में लग बैठी-कोई पुस्तक खरीदने दृष्टि मे तो उक्त जैन-महेश्वर और त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु, कहीं दौड रहा है तो कोई कही। यानी अब शोलापुर महेश-गत महेश्वर भी पृथक २ दो व्यक्तित्व ही होने और अगास जैसे स्थानों से लोगों का लगाव न के बराबर चाहिए । जैसी कि जैनेतरो की मान्यता है । महेश्वर सहा- जैसा रह गया हो। हां, रक शक्ति कप, ब्रह्मा उत्पादक और विष्णु रक्षा करने में यह तो निश्चय है कि शास्त्रों के पढ़ने में श्रम की तत्पर । उनकी दष्टि मे ये शक्तियां ऋषभ से बहुत पूर्व अपेक्षा है। उनकी भाषा पाकत.संस्मत अ अपेक्षा है। उनकी भाषा प्राकृत-संस्कृत अप्रभ्र श या की है और ऋषभ को उन्होंने जी आदि अवतार न मान पूर्वकालीन देश-भाषा हिन्दी होने से वे सुगम ग्राह्य न हो बाद का-आठवां अवतार ही माना है। ऐसे में इन रागियों की दृष्टि से उनमें वर्तमान भाषा जैसी चटकमहेश्वर और ऋषभ को भी एक व्यक्ति नहीं माना जा मटक और भाव-भगिमा भी नहीं और ना ही अब उन सकता । दोनो के स्वतंत्र अस्तित्व हैं और दोनो सम्प्रदायो भाषाओं के सरल-बोध देने वाले विद्यालय और मान्य दोनो की महिमाये भी पथक है और दोनों ही अपने पाठशालायें हैं-वे तो हमारे देखते देखते खंडहर हो गए। में महान् है। भला, जब पडित ही बे मौत मारे गये, तो उनके आसरे एक ओर तो हम कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी मनाने के नारे भी कहाँ ? सब का लोप हो गया । आप पूछेगे ऐसा क्यो लगाए और दूसरी ओर शक्ति, समय और पैसा बरबाद हुआ? सो यह मत पूछिए , इसकी कहानी बड़ी लम्बी कर जैनाचार्यों की सही कथनी और आचार प्रक्रिया पर और दर्दनाक है-फिर कभी सुना देगे-पडितो और पानी फेरे-यह कैसे न्याय्य है ? वर्तमान वातावरण को सस्थाओं के लोप में समष्टि का ही हाथ है। खैर, देखते हुए हम तो यही उचित समझ है कि हमारा सारा अब समय ऐसा आ गया है कि समाज को इस जोर ऐसी निरर्थक शोधो मे हट जैन की चारित्र-शुद्धि पर दिशा मे सावधान होना चाहिए। प्राचीन मूल आगमो के हो, प्राचीन मूल-आगम रक्षा पर हो, इसी मे द्विसहस्राब्दी अधिक संख्या में पठन-पाठन और प्रचार के उपाय होने की सार्थकता है-इसे सोचिए । चाहिए । उनमें अनुकूल-मूल भी विभिन्न भाषाओ मे दे दिए जाय । इस दिशा में प्रगति के लिए जगह जगह ३. क्या कभी शास्त्र भी नहीं मिलगे! पाठशालायें खले, जिनमें मल के अर्थ पढ़ाने का प्रबन्ध समाज मे काफी अर्से से चिन्ता व्याप्त है और जगह- हो। तभी आगम सुरक्षित रह सकेंगे। जगह चर्चा भी होती है कि अब विद्वान नहीं मिलते। आपने देखा होगा- अन्यमतावलम्बियो मे वेद, पर, हमे तो इसके सिवाय कुछ और ही दीखता है-अब गीता, उपनिषद, गुरु ग्रन्थसहित और करान के लोगो बहत कुछ वातावरण ऐसा भी बनता जा रहा है कि कुछ की श्रद्धा मे आज भी वे ही स्थान है जो पहिले जमाने काल बाद ऐसी भी आवाज आने लगगी कि पढ़ने को मे थे । जब कि हमारे बहत से जैनी अपने शास्त्रो के नाम शास्त्र ही नहीं मिलते-नई किताबो के ढेर है। कारण तक नही जानते-वे आधुनिक रचनाओं को ही शास्त्र यह कि लेखक अपनी भाव-भगिमा में नित नए-नए रोनक मान रहे है। जरूरत इस बात की है कि नई रचनाओं के ग्रन्थो का निर्माण करने मे लग बैठे है-कुछ का यह व्या- प्रकाशन व निर्माण मे व्यय होने वाली शक्ति और धन पार आर्थिक दृष्टि से है और कुछ लोग अपना नाम- को रोका जाय और उसका सदुपयोग प्राचीन आगमो की यश छोड जाने की लालसा में इन्हें लिखते है कि मर जाने रक्षा में किया जाय । अन्यथा, वह समय दूर नहीं जब के बाद लोग कहें-अमुक विद्वान ने अमुक ग्रन्थ लिखे। लोग यह कहने को मजबूर होगे कि ---अब शास्त्र ही नही वे सोचते हैं-'गर तू नहीं तेरा तो सदा नाम रहेगा।' मिलते। जरा सोचिए !
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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