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________________ दिगम्बर प्रागम रक्षा-प्रसंग प्रशंसा में एक श्लोक है :- एसो पंच णमोयारो सव्व पावप्पणासणी। मंगलाणं च सव्वेसि पढम होइ मङ्गल ।। यही प्रशंसा श्वेताम्बर धर्म के शास्त्रों में इस प्रकार की गई है एसो पच णमोक्कारो सव्व पावप्पणासणं । मंगलाणं च सवेसिं पढभं हवह मंगलं ॥ इन श्लोकों को देखकर दिगम्बर लोग भी अपने णमोकार मंत्र में 'मोयारो' शब्द को जगह णमोकारो और 'होइ' की जगह 'हवई' कर ले तो दिगम्बर समाज को कोई एतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि अर्थ तो दोनों के समान है पर शब्दों का प्रयोग भिन्न-भिन्न है। लेकिन काई भी दिगम्बर यह मानने को तैयार नहीं है कि अपने णमोकार मंत्र के शब्द बदल देना चाहिए । क्योंकि इससे हमारे दिगम्बर धर्म के इतिहास पर चोट लगती है। बदलने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में भी बहुत-सी गाथाओं को बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए समयसार का मंगलाचरण लीजिए । मंगलाचरण की गाथा इस प्रकार है :-.. "वदित्तु सव्व सिद्धे धुवमचल मणोवमं गईं पत्ते वोच्छामि समयपाहुड मिणमो सुयकेवली भणियं।" इसमें मिणमो शब्द को बदल कर यो गाथा को सुधारना चाहिए-"वंदित्तु सव्व सिद्धे धुवमचलमणोवमं गई पत्तै वोच्छामि समयपाहुण केवलि सुयकेवली भणिय ।" अर्थात् 'मिण मो' की जगह केवली शब्द होना चाहिए क्योंकि धर्म का मूल उपदेश तो अहंत केवली का है न कि श्रुत केवली का है। क्या विद्वान लोग इस परिवर्तन को स्वीकार करेंगे? क्योकि मूल गाथा में यह लिखा है श्रतकेवली द्वारा को हए समयसार को कहूंगा । जबकि वास्तविकता यह है कि श्रुत केवली ने भी अरहंत की वाणी सुनकर ही तो सब कहा है। लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द का अपना अभिप्राय ही दूसरा है। अतः उन्होने केवली शब्द का प्रयोग नही किया. इसलिए मात्र बोलने की भाषा के आधार पर शब्दो को अशुद्ध नही समझना चाहिए। हां अगर उन शब्दो में कोई भाषा की अशुद्धि हो तो हमे उसी भाषा के व्याकरण के अनुसार शब्द शुद्ध करदेना चाहिए । जैसे अगर सौरसेनी भाषा में कोई मागधी प्राकृत भाषा का शब्द प्रयुक्त किया गया है तो हमेमागधी भाषा के ही व्याकरणानुसार उसे ठीक कर देना चाहिए । हिन्दी भाषा मे तो कविता पर के अक्षर और मात्राओं की मर्यादा को लेकर अणुद्ध शब्द भी रखने पड़ते हैं । जैसे आठ को अठ, दृष्टि को दिठ, गोस्वामी को गुसाईं। अतः ग्रन्थकर्ता और रचना, रचनाकाल, परिस्थिति आदि सभी बातो को ध्यान रखना चाहिए । भाषाओं में संस्कृत भाषा ही एक ऐसी है जो सभी क्षेत्रो में एक जैसी है। क्योंकि उस भाषा का सस्कार किया गया है। संस्कार करने से ही उसे संस्कृत दहा गया है। प्राकृत भाषा संस्कृत से प्राचीन है विभिन्न देशों मे उस प्राचीन भाषा की विभिन्न स्थिति देखकर उस भाषा मे सस्कार किया गया तो वह संस्कृत हो गई। हमारे प्राचीन आगम ग्रन्थ प्राकृत भाषा में ही है तथा अर्वाचीन संस्कृत में है। आपने अनेकान्त मे आगम के मूल रूप को लेकर जो कुछ लिखा है वह बहुत अच्छा। हमे कुन्दकुन्द भारती को बदलने से बचाना चाहिए । अन्यथा लोग आगम ग्रन्थ तो दूर रहे वे अनादि मूल मत्र णमोकार मत्र को भी बदल कर रख देंगे। आपका दूसरा लेख 'क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी?' वह भी मैं पढ़ चुका हूँ। आगम ग्रन्थों की भाषा रक्षा में आप संलग्न हैं इसके लिए आपको धन्यवाद है। आपका: (4०) लाल बहादुर शास्त्री
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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