SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर आगम रक्षा-प्रसंग वीर सेवा मन्दिर को प्राप्त कुछ पत्र ( १ ) अकलंक जैसे महान आचार्यों ने तस्वार्थसूत्र की टीका करते हुए एक-एक अक्षर और मात्रा पर विचार करके यह साबित किया है कि इस सूत्र मे यह मात्रा होनी जरूरी है। एक-एक मात्रा पर विचार किया और पूर्वाचाय की रचना को प्रामाणिक साबित किया । पण्डितवर टोडरमल जी ने गोम्मटसार की टीका करते हुए जगह-जगह पर यह लिखा है कि- ' इसका अर्थ हमारी समझ मे खुलासा नही हुआ है।" परन्तु मूल ग्रन्थो को बदली करने का काम तो आज तक किसी ने नहीं किया, जो आज हो रहा है। क्या कुन्दकुन्द भारती की स्थापना इन्हीं कामों के लिए की गई है- जो विद्वान और समाज ऐसे कार्यों में सहयोग दे रहे है, उनको सोचना चाहिए। पैसा ही सब कुछ अतः वीर सेवा मन्दिर को आगे आना चाहिए और आगम की रक्षा करना चाहिए। नहीं है। जिनागम की प्रमाणता इसी बात पर रही है कि कामयों ने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा, जो गुरु-परम्परा से मिला उसी का वर्णन किया है। षट्खण्डागम की रचना आचार्य पुष्पदन्त भूतबली ने की उसकी टीका महान् समर्थ आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने की। उन्होंने भी कही किसी विषय मे मतभेद मिला तो यही लिखा है कि हमें तो दोनो ही बात प्रमाण हैं; परन्तु किसी विषय मे फेर फार नही किया । 'संजय' शब्द को लेकर इस काल मे महान् आचार्य शान्तिसागर जी के समय मे विवाद चला और एक शब्द को बदली करने पर समस्त समाज ने विरोध किया । इसी प्रकार क्षीरसागर नाम के मुनि के तत्वार्थसूत्र और धवलादि मे गलती निकालने की कोशिश की। समाज मे उनका वहिष्कार कर दिया कि इनको मुनि न माना जाय । जो प्राचीन आचार्यों की बनाई हुई गाथा है, उसमे चाहे मात्रा ज्यादा कम हो, अथवा शौरसेनी हो, चाहे अन्य प्राकृत हो, किसी को कलम चलाने का कोई हक नही है । ग्रन्थ को भाषा शुद्ध है । अगर हमने किसी बहाने भी कलम चलानी चालू कर दी तो कलम चलती ही चलेगी और मूल ग्रन्थों का लोप हो जायगा। किसी को कुछ भी लिखना है वह अलग से लिखे, मूल गाथाओं को बदली करना सरासर आगम की हत्या करना है । अभी कुछ वर्षों से भगवान कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों की गावाने में कही अक्षर बदले जा रहे हैं, कहीं मात्रा बदली जा रही है और समाज चुप बैठी है। ऐसा लगता है समाज मूच्छित हो गई है उसको जगाना जरूरी है। यह काम वीर सेवा मन्दिर को उठाना चाहिए, जिससे कोई ऐसा दुस्साहस न करे । आगम की रक्षा करना जरूरी है । किसी व्यक्ति विशेष की, आगम की रक्षा के सामने कोई कीमत नही है । अतः वीर सेवा मन्दिर की तरफ से इसका समुचित विशेष होना जरूरी है। श्री बाबूलाल जैन वक्ता , ( २ ) मेरा अभिप्राय अनेकान्त (वर्ष ४१, कि० १) देखने को मिला मान्य पं० पद्मच द जी शास्त्री इस काल में स्व० मुख्तार सा० का स्थान ले रहे है। ऐसा उनके कार्यों और इस अंक के लेखों से मालूम पड़ता है । ग्रन्थों के सम्पादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है । नियम यह है कि जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सम्भव हों उतनी प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जाती हैं । उनमें से अध्ययन करके एक प्रति को
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy