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दिगम्बर मागम रक्षा-प्रसंग
पावशे प्रति बनाया जाता है। दूसरी प्रतियों में यदि कोई पाठभेद मिलते हैं तो उन्हें पाद टिप्पण में दिया जाता है। यह एक सर्वमान्य नियम है।
जो विद्वान इस पद्धति का अनुसरण करता है वह सिद्धान्त रक्षा में सफल माना जाता है। जो इस नियम का उल्लंघन करता है, उसकी समाज में भले ही पूछ हो, सिद्धान्त रक्षा में उसकी कोई कीमत नहीं की जा सकती।
सामान्य से नव दो प्रकार के हैं, भेद की अपेक्षा वे सात प्रकार के हैं और अनेक प्रकार के है। देखा जाता है कि किस मय से कहाँ क्या लिखा गया है। उस नय से स्पष्टीकरण करने में कोई बाधा नहीं । उसे अस्वीकार करना यही जिनमार्ग को तिलांजलि देना है।
जब षट्खण्डागम धवला जी की प्रथम पुस्तक का सम्पादन हो रहा था उस समय मैं और स्व. श्री पं. होरा. लाल जी शास्त्री अमरावती से उस भाग के सम्पादन, अनुवाद मे लगे हुए थे। सम्पादन करते हुए सत्प्ररूपणा में ६३ सूत्र में यह अनुभव हुअा कि इसमे 'संजद' पद छूटा हुआ है। यह बात डा० हीरालाल जी के ध्यान मे लाई गई परन्तु समस्या का हल न देख कर पाद टिप्पण मे यह लिखना पड़ा कि 'अत्र सयतपद: त्रुटितः प्रतिभाति'।
इसका जो फल हुआ वह समाज के सामने है। इसलिए मैं सोचता हूं कि जो ग्रन्थ हस्तलिखित प्रतियों में जैसा प्राप्त हो, उराको आधार मानकर उसे वैसा मुद्रित कर देना चाहिए। हमको यह अधिकार नहीं है कि हम उसमें हेर-फेर करें। आप अपने विचार लिख सकते हैं या पाद टिप्पण मे अपना सुझाव दे सकते है। मूल ग्रन्थ बदलवाने का आपको अधिकार नहीं है। इसी तथ्य की ओर मान्य प० जी का समाज के सामने ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न है । उमसे आम्नाय की मर्यादा बनाने में सहायता मिलती है और मूल आगमों की सुरक्षा बनी रहती है ।
वेदो के समान मुल आगम प्राचीन है। वे व्याकरण के नियमों से बधे नहीं हैं। व्याकरण के नियम बाद मे उन ग्रन्थों के आधार पर बनाये जाते है। फिर भी कुछ अश मे कमी रह जाती है, इसलिए व्याकरण के आधार पर संशोधन करना योग्य नहो । जो जैसा पाठ मिले वह रहना चाहिए। मान्य पं० जी का इसी तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने का छोटा-सा प्रयत्न है, उसका सबको और स्वय किमी भी ग्रन्थ सम्पादक को स्वागत करना चाहिए । विज्ञेषु किमधिकम् ।
-पं० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री
बनारस वाले हस्तिनापुर जनवरी-मार्च ८८ का 'अनेकान्त' त्रैमासिक पत्र मिला। उसमे आपका एक लेख "गम के मूलरूपों में फेर-बदल घातक है" शीर्षक पढने को मिला। उसमें आपने जो कुछ लिखा है वह बहुत उचित और युक्तियत लिखा है। यह समय कलियुग के नाम से विख्यात है, इस कलियुग के प्रभाव से ही मनुष्य की बुद्धि सुधार और सशोधन के नाम पर बिगाड और विनाश की ओर जा रही है। यही कारण है कि आज लोग आगम ग्रन्थो की भाषा के सुधार में लगे हुए है।
परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द जैन भारती के रचयिता आचार्यों में अपनी प्रधानता रखते हैं। बारह वर्ष के भिक्ष के बाद जैनधर्म और जैन साधुओं में जो विकृतियां आई थी उस समय जैन धर्म अनेक सघों में बिखर गया था और अपनी-अपनी बुद्धि तथा सुविधा के अनुसार उन्होंने अपने-अपने पृथक संघ बना लिए। उस समय चतुर्थ काल से चले प्राये मूल सघ की सुरक्षा प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ही की थी। नीतिसार समुच्चय ग्रन्थ में आचार्य इन्दनन्दि ने लिखा है :
भरते पञ्चमे काले नानासङ्घ समा समाकुलम् । वीरस्य शासनं जातं विचित्रा कोल शक्तयः ॥२॥
अर्थ-भरत क्षेत्र में पञ्चम काल में भगवान महावीर का शासन अनेक संघों में बट गया। काल शक्तियां भी बड़ी विचित्र होती हैं।
अलग-अलग बंट जाने वाले संघों के नाम उन्होंने इस प्रकार दिए हैं: