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________________ आवली काल तक अनन्तानुबन्धी । श्री जवाहरलाल जैन शास्त्री, भीण्डर (i) आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं . बारह कषायो मे से ३ कषाय प्रत्यय ३। तीन वेदों में से अणसजोदिदसम्मे मिच्छ पत्ते ण आवलि त्ति अण। एक १ । हास्य-रति व अरति-शोक; इन दो युगलों में से [गो० क० गा० ४७८] एक युगल २। दस योगो में से एक योग १। कुल १+ अर्थ-अनन्तनबन्धी का विसंयोजन करने वाले क्षयो- २+३+१+२++१=१० प्रत्यय । इस प्रकार ये पशम सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व-कर्मोदय से मिथ्यात्व गुण- सब मिल कर मिथ्यात्व गुणस्थान में एक समय मे दस स्थान को प्राप्त होने पर आवली मात्र काल तक अनन्ता- बन्ध के प्रत्यय अर्थात् कारण होते हैं। नुबन्धी कषाय का उदय नही होता। (iv) ज्ञानपीठ से प्रकाशित पचसंग्रह के सप्ततिका [स्व० १० मनोहरलाल सि• शा०] प्रकरण मे गा० ३६ में पृ० ३२५ पर लिखा है(ii) इमी प्रकृत गाथार्ध के अर्थ को सिद्धान्त शिरो- द्वाविंशतिबन्धके मिथ्यदृष्टि जीवे उत्कृष्टतो दशमोहमणि स्व० अ० रत्नचन्द मुख्तार लिखते है --अनन्तानुबधी प्रकृत्युदया १० . .. द्वाविंशतिबन्धकेऽनन्तनुबन्ध्युदयरहिते कषाय का जिसके विसयोजन हो गया है ऐसे वेदक या मिथ्यादष्टी २२, नयप्रकृत्युदयाः । उपशम सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व अर्थ-बाईस प्रकृति का बम्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। उसके बन्धावली या अचलावल। काल के सभी सम्भव प्रकृतियो का उदय हो तो १० प्रकृतिक पर्यन्त अनन्तानुबन्धी का उदय नही होता। उदयस्थान होगा। यदि पिसयोजन के हो जाने से अनता[गो० क० पृ० ४८८ पूज्य आ० आदिमती जी] नबन्धी का उदय नही है तो प्रकृतिक उदय स्थान भी (iii) भगवद् वीरसेनस्वामी धवल पु०८ पृ० २५ सम्भव है। मे लिखते है - मिच्छाइट्ठिसु जहण्णेण दस पच्चया । पचमु (v) प्राचीन पचसग्रह [ज्ञानपीठ], सप्ततिका, गा० मिच्छत्तेसु एक्को। एक्केण इदिएण एक्काय विराहेदि ___३०५, पृ० ४३८-३६ पर लिखा हैत्ति दोण्णि असजमपच्चया। अणताणुबधिच उक्क विसजोइय आवलियमित्तकाल मिच्छत दसणाहिसपत्तो । मिच्छत्त गयस्स आवलियमेत्तकालमणंताणबधिच उकस्स- मोहम्मि य अणहीणो, पढमे पुरण णवोदओ होज्ज । दयाभावादो। बारसमु कषायेसु तिणि कसायपच्चया। टीका--अनन्तानुबन्धि विसयोजित वेदक सम्यग्दृष्टो तिसु वेदेसू एक्को। हस्स दि-अरदि-सोग दोसु जुगलेसु मिथ्यात्वकर्मोदयात मिथ्यात्वगुणस्थान प्राप्ते आवलिमात्र एकादर जुगल । दसमु जोगेसु एक्को जोगा। एवमेद सव्वे कालं अनन्तानुबन्ध्युदयो नास्ति । अतो अनन्तानुनन्धिरहितो वि जहण्णेण दस पच्चया। नवप्रकृतीनामुदयो ६ मिथ्यादृष्टो प्रयमे गुणस्थाने भवेत् । अर्थ-पाच मिथ्यात्वो में से एक १ । एक इन्द्रिय से अर्थ -अनन्तानबन्धी की बिसयोजना युक्त सम्यगजघन्य से एक काय की विधिना करता है। २ । इस दष्टि जीव यदि मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व गुणतरह दो असयम प्रत्यय । अनन्तानुबधिचतुष्टय का विस- स्थान को प्राप्त हो जावे, तो एक आवली काल तक उसके योजन करके मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीव के आवली मात्र अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय सम्भव नही है। अतएव काल तक अनन्तानुबन्धी कषाय ४ का उदय नही रहने से मिथ्यात्व गुणस्थान में नौ प्रकृतिक उदयस्थान भी होता
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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