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________________ पोम् अहम् Unit - - . MARATHI TNIR -- परमागमस्य बीजं निषिखजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ अप्रैल-जून वर्ष ४१ किरण २ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१३, वि० सं० २०४५ १९८८ श्रीसुपार्श्व-जिन-स्तवन स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां । स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा ॥ तृषोऽनुषंगान्न च तापशान्ति-रितीव माख्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥१॥ -समन्तभद्राचार्य 'यह जो आत्यन्तिक स्वास्थ्य है-वह विभाव परिणति से रहित अपने अनन्तज्ञानादिमय स्वात्मस्वरूप में अविनश्वरी स्थिति है-वही पुरुषों का-जीवात्मा का सच्चा स्वार्थ है-निजी प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोग--इन्द्रिय-विषय-सुख का अनुभव-स्वार्थ नहीं है; क्योंकि इन्द्रिय-विषय-सुख के सेवन से उत्तरोत्तर तृष्णा की-भोगाकांक्षा की-वृद्धि होती है और उनसे ताप की-शारीरिक तथा मानसिक दुःख की शान्ति नहीं होने पाती। यह स्वार्थ और अस्वार्थ का स्वरूप शोभनपाश्र्वो-सुन्दर शरीराङ्गों के धारक (और इसलिए अन्वर्थ-संज्ञक) भगवान सुपार्श्व ने बतलाया है। भावार्थ-इस पद्य में आचार्य समन्तभद्र ने सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का स्तवन करते हुए स्वार्थ और अस्वार्थ का जो स्वरूप निर्दिष्ट किया है, वह महत्त्वपूर्ण है। ज्ञानी जीवों का स्वार्थ स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति है। वे उसी की सम्प्राप्ति का निरन्तर प्रयास करते हैं। क्षणभंगुर इन्द्रिय-विषयों की ओर उनका झुकाव नहीं होता, क्योंकि वे सन्ताप बढ़ाने वाले हैं, शान्ति के घातक हैं, अतएव वह ज्ञानी जनों का अस्वार्थ है। भगवान सुपार्श्व ने उसी सम्यक् स्वार्थ को प्राप्त किया, और जगत को उसी की सम्प्राप्ति का मार्ग बतलाया है।
SR No.538041
Book TitleAnekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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