Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 136
________________ २८, वर्ष ४१, कि० ४ अनेकान्त है। आज के वैज्ञानिक भी यह बात स्वीकार करते हैं कि और दोनों के मिश्रण से बनते है। वैज्ञानिकों ने भी यही द्रव्य-सबस्टेन्स का रूप नहीं बदलता। वैज्ञानिकों ने सब- सिद्ध किया है कि एक मार्क्स नाम की गैस होती है। स्टेन्स का एक गुण यह भी कहा है कि उसका कोई आकार मार्स गैस मे क्लोराईड को प्लस करने से हाइड्रो क्लोरीक होना चाहिए । जैन दर्शन मे इसको प्रदेशत्व गुण कहा गया एसिड बन जाता है। मार्क्स गैस अदृश्य होती है परन्तु है। जैन शास्त्रो मे पेड़-पौधों पे-वनस्पति में चेतन स्वी- क्लोराइड के मिलने से वह चाक्षुश्व हो जाती है। इसी कार की गई है। जैनो की यह मान्यता हजारो कालों से प्रकार जैन सिद्धान्त मे अन्य भो ऐसे प्रकरण मिलते है चली आ रही है। आज के वैज्ञानिको ने बहुन बाद मे जिनकी प्रमाणिकता को नही नकारा जा सकता है। जैन यह सिद्ध कर पाया कि वनस्पति मे भी जान है, वे सांस साहिता मे जैनों को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना, पानी लत है और सास छोड़ते है। प्रत्येक वनस्पति मे जैन छान कर पीना, गेहूं के आटे का कुछ ही अवधि तक मान्यतानुसार बल, आयु, श्वाच्छो वास आदि होते है। सेवन करना, दूध-दही के उपयोग मे सतर्कता रखना आदि वैज्ञानिक भी इस स्वीकार करते है। की जो शिक्षा दी गई हे वे पूर्णतया वैज्ञानिक है। जैन जो वस्तुयें आखो से दिखाई देती है उनको जैन दर्शन साहित्य मे कर्मवाद का सिद्धान्त बहा विस्तार मे वणित मे चाक्षुश्व कहा गया है। यह चाक्षुश्व पदार्थ भेद संघात हुआ है। यह सिद्धान्त भी पूर्णतया वैज्ञानिक है। नोट:-उक्त लेख दिनांक ११ दिसम्बर १९८८ को आकाशवाणी पर प्रसारित हुआ। (पृष्ठ २० का शेषांश) मुत्पत्तिः कार्तिकमासे स्वत एव पतनात् । और उनकी आचार्य परम्परा २१०१) ___ अर्थ-मयुरपंख की जीवघात से उत्पत्ति हो, ऐसी बम्बई से प्रकाशित श्लोक वातिक की प्रस्तावना मे बात भी नहीं है, क्योकि मोर के १५ कार्तिक मास में लिखा है - - अपनी तत्त्व शका का समाधान करने के लिए स्वय झड़ जाते है उनसे यह बनती है। (पृ० १२३, उमारवामी विह क्षेत्र मे गए थे। मार्ग में उनकी मयुरज्ञानपीठ प्रकाशन) पिच्छी गिर गई। तब उन्होने गद्ध के पिच्छ से काम D श्रीयुत प्रेमी जी ने जैन हितैषी भाग १०, पृ० चलाया। इसी से; बाद मे ये गद्धपिच्छाचार्य कहलाए। ३६६ पर ज्ञान-प्रबोध ग्रन्थ से एक कथा लिखी उसमे (कुन्दकुन्द प्राभृतिसंग्रह प्रस्ताव पत्र १३) उसमे कहा है यदि उक्त सब बाते सत्य है तो शुरू से ही मयुर दो चारण मुनि जो पूर्व भव में कुदकुंद के मित्र थे, पिच्छिका के प्रचलन की सिद्धि हो जाती है। मयूर. कुदकुंद को सीमन्धर स्वामी के समवसरण मे ले गए। पिच्छिका मे पांचो गुण विद्यमान होने से साधु के लिए जब वे उन्हे आकाश मार्ग से भेज रहे थे तो मार्ग मे अनुचित भी नहीं है। पूज्य आचार्य अजितसागर जी कुन्दकुन्द की "मयुर पिच्छिका" गिर गई। तब कुन्दकुन्द (पट्टाधीश) की परम्परा मे तो श्रावकों के माध्यम से ही ने गद के पंखों से काम चलाया। कुन्दकुन्द वहाँ एक अहिंमक विधि से; स्वत: गिरे पंखो की मयुरपिच्छियों सप्ताह रहे और उनकी मब शकाए दूर हो गई। का ही उपयोग किया जाता है। उक्त तीनों प्रश्न इतिहास कुन्दकुन्द प्राभुत संग्रह प्रस्ता० १० ३-४, तीर्थंकर महावीर से सम्बद्ध है; अतः इतिहासज्ञ विशेष प्रकाश डाल सकेंगे।

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