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जरा-सोचिए !
१. कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी की सफलता ? विचार गिरते गए, इसका हमे दुख है। और-आज
जब सन्देश मिलते है-- श्रीमान जी, हम आचार्यश्री स्थिति यह भा गई कि जो मोटी-मोटी बाते जनेतरो को कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी के उपलक्ष्य म अमूक तिथि में गोष्ठी समझाई जानी थी वे जैनियो को सबोधित करके स्वयं ही या सेमीनार कर रहे है। अनेका विद्वानो की स्वीकृति आ कहनी पड़ रही है । जैसे-- चुकी है। आप भी आइए-विचार प्रकट करने । किराया भाई जैनियो ! रात्रिभोज का त्याग करो, सप्त व्यदोनो ओर का दिया जायगा, कुछ भेट भी देगे। भोजन सनो से बचो, पानी छान कर पियो, नित्य देव दर्शन करो, और ठहरने को सभी सुव्यवस्थाये रहेगी, आदि । अहिंसा आदि चार अणवतो का पालन और पांचवें परि
तब हम सोचते है--क्या लिखे? इन घिसे-पिटे ग्रह मे परिमाण को करो। और पूज्य-पद मे विराजित प्रोग्रामो के सम्बन्ध मे, सिवाय यह सोचने के कि-हम मुनिगम भी अन्तरग बहिरंग सभी भाँति से निर्ग्रन्थ रहने पहुच तो सकते है बिना किराया और भेट लिए ही। और के लिए तीर्थंकर महावीर और कुन्दकन्दवत् निज-ज्ञान, विचार भी प्रकट कर देगे बिना कुछ खाए-पिए भी। पर, निज-ध्यान और निजतप मे लीन रहने की कृपा करें। लोकेषणा के इस माहोल मे सचाई को सुनेगा और मानगा समाज और अन्यों के सुधार चक्करो, भक्तों के अनिष्ट कौन ? सभी तो मान-सम्मान और पैसे के नशे में है- निवारण हेतु मंत्र-तत्र जादू-टोना आदि करने से विरत हों। कोई ज्यादा कोई कम। क्या श्रोताओं और संयोजको के संघ के निमित्त वाहन आदि के संग्रह से विरत हों। लिए गोष्ठी की सफलता (जैसा चलन है) किराया आदि अन्यथा, हमें डर है कि-कही वे स्टेजो, फोटओ, जयकारों देकर, हो हल्ला मचाने-मचवाने तक ही तो सीमित न रह और भीड़ के घिराओ मे ही न खो जाँय और आर्ष-परपरा जायेगी? या होंगे कुछ सयोजक और कुछ श्रोता वहाँ ? से च्युत न हो जाय । वे पूर्वाचायाँ कृत आगमी का अपने जो कुन्दकुन्द जैसे आदर्शों को आत्मसात् करेगे-उनके हेतु अध्ययन करे। यदि आचार्यगण नई-नई रचनाओ के जीवन और उपदेशों को आदर्श मान प्राणपण सेजन पर चक्कर में पड़ेगे तो व भले ही छोड़ी हुई जनता मे पुनः चलने को तैयार होगे? आदि। जैन तो आचार-विचार आ जाँय -नाम पा जाएँ, जिनवाणी का अस्तित्व तो मे समुन्नत होता है । आज तो कई त्यागी भी शिथिल है। खतरे में ही पड़ जायगा--उसे कोई नही पढ़ेगा और
हमें याद है-कभी २५००वा निर्वाणोत्सव भी काल्पनिक नवीन ग्रन्थ ही आगम बन बैठेगे । मनाया गया था। तब बड़ी धूम थी और लोगो में आचाररूप धर्म की रक्षा व वृद्धि करने में ही उत्सव जोश-खरोश भी । तब लोगो ने प्रभूत द्रव्य का हस्तातरण मनाने की सफलता और प्रभावना है। वरना, जैसा चल भी किया। तब बड़े-बड़े पोस्टर लगे,किताब छपी, पण्डाल रहा है, वह बहुत दुखदायी है। कभी-कभी तो श्रावकों बने । सम्मेलन, भाषण और भजन कीर्तन भी हुए। कही- और मुनियो से सम्बन्धित कई अटपटे समाचारो और कही महावीर के नाम पर पार्क भी बने, भवन बने और प्रश्नावलियो के पढ़ने और सुनने से रोना तक आ जाता कई सड़कें भी अपने में महावीर मार्ग नाम पा गई। यह है। जहाँ दिन था वहाँ रात जैसी दिखाई देन है। ऐसा जो हुआ शायद भावावेश में कदाचित् अच्छा हआ हो। क्यो? यह सोचने की बात है। कुछ थोथे नेता नाम पा गए हो उसकी भी हम आलोचना एक ओर जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की द्विसहस्राब्दी नहीं करते । पर, लोग आचार को दृष्टि से जहा के तहां मनाने के नारे लग रहे है वही दूसरी ओर कुछ जैनी ही भी न रह सके वे स्वय नीचे ही खिसके-सबके आचार- कन्दकुन्द के आचार-विचार को तिलाजलि दे, जैनियो की