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३०, वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
जैन-मान्यताओं को झुठलाने के प्रयत्न में लगे हैं। कोई कालसन्दीपनः काष्ठान्यक्षिपत् । ततः सप्तरात्र सुर्य चेऽस्य आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और महादेव (रुद्र) को एक ही मा विघ्नं कृथास्ततः सिद्धाङ्ग प्रवेश याचन्ती भाले दत्तेव्यक्ति मानने-मनवाने के प्रयत्न में हैं तो कही एक कोशिश ऽतिगता, बिले जाते तृतीय नेत्रमकृत । तेन पिता हतो यह भी है कि महावीर तीर्थकर को मौजूदा निर्धारित मन्माता राजसु घर्षितेति ततो रुद्राख्या। तद्भयात्कालसमय से १२०० साल पूर्व ले जाया जाय, आदि । और सन्दीपनो नश्यन् पुरत्रयं कृत्वाऽईदयोस्तस्थौ, रुद्रेण पुरेषु यह सब कुछ हो रहा है-कुछ विद्वानों, कुछ नेताओं और हतेषु सुर्यः आहुर्वय विद्याः सोऽहत्पार्वेऽस्ति ततस्तेन तत्र कुछ समर्थ श्रावकों की छाया मे-धन के आसरे या यश- गत्वा क्षामितः। अन्य आहुलवणे महापाताले हतस्ततः स लिप्सा में। क्या, ऐसे मे जैन की पहिचान और आत्म- विद्याचक्रयभूत् । त्रिसन्ध्यं सर्वविहरदहतो नत्वा नाट्य कल्याणभूत आचार-विचार सुरक्षित रह सकेंगे? क्या इसी कृत्वा ततो रमते । तस्येन्द्रो महेश्व राख्यां ददौ, स द्विष्टो को द्वि-सहस्राब्दी की सफलता कहा जायगा? जरा सोचिए। द्विजकन्याना शतं शतमन्यस्त्रीश्च रमयति, तस्य नन्दीश्वरो
नन्दी च मित्रे पुष्पक विमान, सोऽन्यदोज्जयिन्या प्रद्योनस्य २. ऋषभ प्रार महेश्वर: दो व्यक्तित्व शिवां मुक्त्वाऽन्यराज्ञीष रमते, राड दध्यौ मारणे क
प्रसिद्ध जैनकोश-अभिधान राजेन्द्र के भाग ६ पृष्ठ उपाय: ? उमा वेश्या सुरूपा तस्मिन्नागते धूप दत्तेऽन्यदा ५६७ मे रुद्र शब्द के अर्थों में एक अर्थ महादेव भी दिया ‘स मुकुलितं प्रबुद्धं च पुष्पं करे लात्वाऽस्थात् स प्रबुद्ध ललो है। वहाँ पर श्वेताम्बर-आगम 'आवश्यकवृहदत्ति' से महा- तयोक्त मुकुलाहस्त्व नाऽस्य, यतोऽस्मासु न रमते । ततदेव की उत्पति की कथा को भी उद्धृत किया गया है। स्तस्यां रतस्त्व कदाऽविद्यः स्याः ? इत्यूमापृष्टोऽवग मैथुनयह कथा प्राकृत भाषा में है। श्वेताम्बर आचार्य भद्रबाहु । क्षणे । राज्ञा तज्ज्ञात्वा स तदोमासहितो घातितस्ततो स्वामी प्रणीत "नियुक्ति' की दीपिका टीका मे भी पृ० नन्दीश्वरः खे शिला कृत्वा तत:, राजा सार्द्रपटो नत्वा १०८ पर ऐमी कथा सस्कृत में निबद्ध है। यही महादेव- क्षामितवान्, सोऽबगीदपेण महेश्वरस्याऽर्चने पुरे पूरेऽस्य महेश्वर जैनियो में ग्यारहवे रुद्र है और इनका समय स्थापने च मुञ्चे, ततो लोकैस्तथा प्रासादाः कारिता इति तीर्थकर महावीर का काल है-भगवान ऋषभदेव के रुद्रोत्पत्तिः ।"-आवश्यक नियुक्तिः दीपिका-पृ० १०८ लाखों वर्षों बाद का काल है। जैन मान्य महेश्वर (रुद्र)
श्वे. जैन मान्यतानुसार उक्त कथा महादेव-महेश्वर की कथा इस प्रकार है :
की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे है। कथा के अनुसार इन महा"अत्र महेश्वरोत्पत्ति:-चेटकजा सुज्येष्ठा दीक्षितो- देव का मूल नाम सात्यकि है और सात्यकि को महेश्वर पाश्रयान्तराता-पयति, इत: पेढाल: परिबाड् विद्यासिद्धो संज्ञा इन्द्र द्वारा प्रदान की गई है और इनको रुद्र भी कहा विद्या दातु नरं दिदृक्षुश्चेद् ब्रह्मचारिण्याः सुत: स्यात्तदा गया है। यद्यपि कथा में उमा, नन्दी जैसे नाम भी है। तस्मै दिद्यां दद इति तस्या धुमिकाव्यामोहेन विद्यया शील- इस कथा में महेश्वर द्वारा नाटय करने का भी उल्लेख विपर्यासः कृतस्तत ऋतुकालत्वादगर्भ जाते ज्ञानिभिरुक्तं है पर ये ज्येष्ठा के पत्र है। ज्येष्ठा महावीर कालीन राजा नंतस्याः कोऽपि दोष इति छन्नं स्थापिता सुतो जातः चेटक की पुत्री है और महावीर और ऋषभ के काल मे श्राद्धगृहे वर्धते । ततः समवसृति गतः साध्वीभिः सह काल- लाखो वर्षों का अन्तराल है फलत: इन महादेव को ऋषभ सन्दीपनो विद्य। भृत्प्रभुमपृच्छत्-कुतो मे भी: ? प्रभुराहा- नही माना जा सकता। ऽस्मात्सत्यकेरिति । स पित्रा हुत्वा विद्याः शिक्षितो महा- दिगम्बरों के आराधना कथाकोश की सत्यकिरुद्र की रोहिणी साधयत्ययं सप्तमो भवः । पञ्चसु विद्यया हतः, कथा भी इसी कथा से प्रायः मिलती-जुलती है। और षष्ठे षण्मासशेषायुषा विद्या न स्वीकृता, इह साधयितु- दोनो ही सम्प्रदाय ऋषभ और महावीर में लाखों वर्षों का मारब्धा । अनाथमृतकचितां कृत्वाऽऽसन्ने आर्द्रचर्म विस्तार्य अन्तराल मानते है। ऐसी अवस्था में भी इन महेश्वर और तवं काष्ठज्वलनावधि वामागुष्ठेन चलति, अत्राऽन्तरे ऋषभ को एक ही व्यक्ति मानने-मनवाने की किन्ही जैन