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१२,बर्ष ४१, कि०४
मनेकान्त
४. प्रतिष्ठा में उभरे प्रश्न :
(६) क्या, आमूर्तिक सिद्ध भगवान का चरम प्राकार समाज में पंचकल्याणक उत्सवों का प्रचलन प्राचीन
अरहनों की प्रतिमा के समान सशरीर (मूर्तिक) है और पचकल्याणक अब भी होते हैं। कहा जाता : ऐसी
रूप मे और छत्रयुक्त बनाए जाने का आगम में सब क्रियायें मूनि-शुद्धि के बहाने धर्म प्रगवना के लिए
विधान है ? और तीर्थंकर-चरित्रों को आत्मसात् करने लिए होती
(७) क्या, जीवो की रक्षा निमित्त अग्नि, धूप, दीप
और होम का निषेध करने वाले हमारे तेरापंथ है। बीच के काल मे जब जैन सामान्य मे पन्थ होते हुए भी परस्पर भेद-भाव का जोर नही पनपा था; तब पंच.
सम्प्रदाय की प्रतिष्ठानों में बड़े-बड़े आरम्भिक कल्याण को, प्रतिष्ठाओं आदि की प्रक्रियाओ के सम्बन्ध में
क्रियाकाण्ड करने कराने और हजारों २ बल्बों भेद उजागर नही थे । आज जब तरा, बोस का चक्कर
के जाने आदि मे अहिंसा कायम रह जाती जोरो पर पहुंच गया तब लोगो में नए-नए प्रश्न उभर कर
है ? या ये हमारे थोथे आडम्बर है ? सामने आने लगे-लोग आचार्यों तक के पास निर्णयो को (८) क्या, अभिषेक-इन्द्र-सारथी आदि और पीछीपहुंचने लगे-हाला कि आज के साधु भी पथ-वाट
कमण्डलु की बोली लगाकर पैसा इकट्ठा करने फंसे है।
का आगम मे विधान है ? जरा-सोचिए ! गत दिनो स्थानीय कैलाशनगर-दिल्ली में हुई प्रतिष्ठा के बाद यहां अनेको प्रश्न उभरे है और कई लोगो ने किमी ५. क्या ऐसे नहीं हो सकतों प्रतिष्ठायें ? मूर्ति के आमरे को लेकर हमसे कुछ समाधान भी चाहे है। हो सकता है कभी हमारे पूर्वजो ने धन दिया हो। पर, हम निवेदन कर दें कि हम उस प्रतिष्ठा म न जा पर, हम तो दान नहीं, अपितु वांछित यश की कीमत ही सके और न ही हमें प्रतिष्ठा विषयक कुछ ज्ञान है । प्रति- अग्रिम चुका रहे हैं। हम कहो किसी को जो दे रहे है ष्ठाओ के विषय में तो पागम और प्रतिष्ठाचार्य ही प्रमाण प्रशसा के लिए ही दे रहे हैं। ज्यादा क्या कहें ? आज तो होते है-वे जैसा निर्णय ले। प्रश्नों को हम ज्यो के त्यो प्राग लोग धन के बहाने धर्म को भी पापार बना बैठे लिख रहे है। आशा है निष्ठाचार्य गण कोई निराकरण है-धर्म को विकृत कर रहे है। जैसे---हमने कभी नहीं देंगे। यदि कोई निराकरण हमारे पास आए तो पाठको सुना कि कही शास्त्रो में ऐसा उल्लेख हो कि चन्दा इकट्ठा के लाभार्थ यथा शक्ति हम छाप भी देंगे।
करके चौका लगा हो और किमी मुनि ने-उममें आहार प्रश्नावली:
लिया हो । यह प रपाटी तो सदावों जैसी हुई-3द्दिष्ट (१) पंचकल्याणक तीथंकरो के ही होते है या सामा. आहार से भी बदतर जैसी ही हुई । मुनि उसमें क्यों और ___न्य सभी अरहतो के भी?
किस विधि से आहार ले सकते हैं ? वे तो लौट जाएंगे। (२) क्या आगम में आचार्य उपाध्याय और साधु की यदि अब के ई लेते हों को यह शास्त्रों के विपरीत चर्या ही
प्रतिमायें बनने का विधान है ? यदि हाँ तो- होगी। (३) क्या, इनकी मूर्तियो की प्रतिष्ठा का पंच कल्या- आज ठीक ऐसी ही परम्परा कई पचकल्याणको के ___णको में विधान है ? और इन पर छत्र क्यो? कराने में भी देखी जा रही है। लोग चन्दा इकट्ठा करते (४) सप्तषियो की प्रतिमाओ का चलन कोन से पथ है और पचन ल्याणक कराने का झण्डा गाड़ देते है। का है-आगम प्रमाण दें।
उनका लक्ष्य होता है-चन्दा इकट्ठा कर खर्चे की पूर्ति (५) क्या, सहारा देने के लिए प्लेट मे पेचों से कस करना और कुछ बचा भी लेना । और वे इसमे सफल भी
कर खड़ी की गई मति (छेदित होने के कारण) होते है-'हर्रा लगे न फिटकरी रग चोखा ही आय।' खडित नहीं होती? क्या ऐसी मूर्ति प्रतिष्ठा के इस तरह पचकल्याणक भी हो जाते है और कही-कहो तो योग्य होती है ?
अच्छी खासी बचत भी हो जाती है। और वह अन्य धार्मिक