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या सामाजिक कार्यों के लिए रिजर्व रख ली जाती है । इस की सुविधायें भी तो मिल जाती हैं। पर सोचना यह है प्रकार धूम फिर कर समाज का द्रव्य समाज के पास ही कि क्या इस सबके लिए ऐसी बडी द्राविड़ी-प्राणायामो के सुरक्षित रह जाता है जो पहिले व्यष्टि रूप में था वह सिवाय कुछ और मी सरल मार्ग हो सकते हैं ? सभी अव समष्टि रूप में हो जाता है और व्याज में मिल जाती जानते हैं कि हमारे यहां णमोकार मत्र महामत्र माना गया है मतियों की प्रतिष्ठा। ऐसे मे दान और धर्म कहाँ हुआ? है। इसके प्रभाव मे कठिन मे कठिन सकट तक टल भावो मे तो उस दान-द्रव्य के प्रति स्वत्व है। बैठा रहा। जाते है और यह आत्मा तक को शुद्ध कराने में समर्थ है दान नो वहां होता है जहा स्वत्व का त्याग हो और धर्म और मुनिगण भी हर बाह्य-अन्तरग शुद्धि के लिए प्रतिवहाँ होता है जहाँ आत्मा में निखार हो। यहाँ तो ममत्व मण मे इसका उपयोग करते हैं। तो क्या मूर्ति को शुद्धि, और राग के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं हआ। उलटा प्रतिष्ठा के लिए इस मंत्र के लाखो लाखो जपों का प्रयोग ममत्व-और वह भी दान के--पर के सामहिक द्रव्य के करके मूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न नही किया जा मंरक्षण आदि मे बना रहा । जब कि जैन धर्म अपने द्रव्य सकता? शुद्धि और संकट निवारण के लिए मरते दम मे भी ममत्व के त्याग का उपदेश देता है।
तक इस मत्र का जप किया जाता है। कहा भं हैपहिले नही सुना गया कि मूर्ति निर्माण, पचकल्पा- 'एसो पच णमोयारो, सव्वपावपणासणी। णक या गजरय आदि कभी चन्दे से होते रहे हों-चन्दे की
मगलाणं च सम्वेसि पढम होइ मगल ॥' परिपाटी तो इसी काल मे पडी दिखती है। पहिले तो ऐसे हम बिना किमी पूर्वाग्रह के जानना चाहते है कि, पुण्यकार्य किसी एक के द्रव्य से ही होते रहे सुने है और ऐसे प्रतिष्ठाओ में जो बोली, चन्दे चिटठे और दिखावे म ही ममत्व-त्याग सभव है-चन्दे का प्रश्न ही नहीं। इन्हे आदि जैसे अनेकों आडम्बर घुम बैठे है वे कहा तक धर्म कगने वाला व्यक्ति उदारभाव से निःशल्य होकर द्रब्य । सम्मत है। हमारी दृष्टि से या तो प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाका सदायोग करता था। संपादन कराने वाले को स्व- शास्त्रों के अनुसार बिना किन्ही आडम्बरो के हो यदि नही स्यातिमर्ग में रुचि होती थी ! वह बोलियो जैसी कुप्रथाओ तो, क्या प्रतिष्ठा के निमित्त कोई ऐमी व्यवस्था उपयुक्त के सहारे सग्रह नहीं, अपितु स्वय की शक्ति के अनुसार न होगी कि सामूहिक रूप मे णमोकार मत्र के लाखोस्वय के द्रव्य से प्रतिपादित कराता था। जा, वह भी लाखो की संख्या में जा कर लिए जायं। इसमे मति तो कोई धर्म है जिसमें अभिषेक, पूजा, आदि जैसे अधिकारो प्रतिष्ठित होगी ही, मत्र जप करने से मैकडो-हजारों की खरीद फरोख्न गयो से होती हो; इन्द्र और मारथी भक्तो के तन-मन भी पवित्र होगे। बड़े से पण्डाल में जब आदि के आसन रुपयों में विकते हो; आदि । क्या जैनियो हजारो भक्त धोती दुपट्टा पहिने मन्द स्वर में मत्र बोल मे भी ब्रत-ता आदि से प्राप्त होने वाली पदवियाँ भी रहे होगे तब सा ओर ही होगा और व्यर्थ के झझटो से पैसे से खरीदी जा सकती है ?
मुक्ति भी होगी। तब न तो गाजे बाजे का प्रबन्ध करना निःसन्देह इसमे शक नही कि चाहे कार्य कैसे ही पड़ेगा और न ही प्रभूत द्रव्य की चिन्ता होगी। परिग्रह किन्ही उपायों से भी सपन्न हए हों, चन्दे या बोलियो से और आरम्भ से भी छुटकारा मिलेगा-जो जैन धर्म का ही सही-भविष्य मे तो लोगो को धर्म के आधार होते ही मुख्य लक्ष्य है। जरा सोचिए ! है। प्रतिष्ठाये होती है तो जनता को सदा-सदा दर्शन पूजन
-सम्पादक
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