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श्राचार्य कुंदकुंव के ग्रन्थों में निश्चय व्यवहार का समन्वय
( वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना) कठिन है उसी प्रकार व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।'
इस तरह यहां स्पष्टरूप से साधारण जन को परमार्थ तक पहुंचाने में व्यवहारनय को अनिवार्य साधन के रूप मे स्वीकार किया गया है। इसके आगे व्यवहार को "अभूसार्थ" तथा शुद्धन (निश्वयनय) को "भूतार्थ" कहते हुए भूतार्थनयाश्रयी को सम्यग्दृष्टि कहा है।" यहा ग्रन्थकार भ्रम निवारणार्थं पुनः कहते है जो परम भाव (उत्कृष्ट दशा) में स्थित है उसके द्वारा शुद्ध तक उप देश देने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरम भाव (अनुस्कृष्ट दशा) में स्थित है वे पहाय से उन देश करने के योग्य है ।" इस तरह व्यवहारनय को त्याज्य न बतलाते हुए अपेक्षा भेद से ग्रन्थकार दोनो नयों की प्रयोजनवत्ता को सिद्ध करते है। अधिकांश जीव अपरम भाव में ही स्थित है। यहा टीकाकार "अमृत चन्द्राचार्य" "उक्त च" कहकर एक गाथा उद्धृत करते हैं"जइ जिणमय पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह। एक्केण विणा छिन् तित्य अरण उणतच्च
अर्थ - यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हो तो व्यवहार ओर निश्चय दोनो नयों को मन छोडो, क्योकि व्यवहार नय के बिना तो तीर्थ (व्यवहार मार्ग ) का नाश हो जायेगा और निश्चय नय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा क्योकि जिनवचन को स्याद्वाद रूप माना गया है, एकान्तवादरूप नही । अतः जिनवचन सुनना, जिनविम्बदर्शन आदि भी प्रयोजनवान् है ।
ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए प्राचार्य ने कहा है "जा बहुत प्रकार के आदि बाह्य लिङ्गो में ममत्व करते गृहस्थ है वे समयसार को नही जानते ।" व्यवहार नय दोनो ( मुनि और गृहस्थ ) लिङ्गो को इष्ट मानता है ।" पर यहा जो लिङ्गी को मोक्षमार्ग निश्चय नय से कहा है वह विशुद्धात्मा की दृष्टि से कहा है जो विशुद्ध आत्मा है वह जीव- अजीव द्रव्यों में से कुछ भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है।"
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इस प्रकार जो इस समयप्राभृत को पढ़कर अर्थ एव तत्त्व को जानकर इसके अर्थ मे स्थित होगा वह उत्तम सुख प्राप्त करेगा।" यहां पडिहूड (पढ़कर), अत्यतश्चदो
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गाउं ( अर्थ तत्व को जानकर ) और अत्थे ठाही चेया ( अर्थ मे स्थित आत्मा) पद चिन्तनीय है जो निश्चय व्ययहार के समन्वय को ही सिद्ध करते है। शुद्ध निश्चय नय तो स्वस्वरूप स्थिति है वहां कुछ करणीर नहीं होता, जब कि ससारी को करणीय कर्म भी जानना जरूरी है। (३) प्रवचनसार -.
यह ज्ञान शेप और चारित्र इन तीन अधिकारों में विभक्त है। इसकी प्रारम्भिक पांच गाथाओ मे तीर्थंकरों, सिद्धो, गणधरो उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार किया गया है तथा उनके विशुद्ध दर्शन ज्ञान प्रधान आश्रय को प्राप्त करके निर्वाण सम्प्राप्ति के साधनभूत समताभाव को प्राप्त करने की कामना की गई है। इसके बाद सराग चारित्र वीतराग चारित्र आदि कथन किया गया है ।
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तृतीय चारित्राधिकार का प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार सिद्धों और श्रमणो को बारम्बार नमस्कार करके दुःखनिवारक भ्रमणदीक्षा लेने का उपदेश देते है । इसके बाद श्रमणधर्म स्वीकार करने की प्रक्रिया प्रादि का वर्णन करते हुए निश्चय व्यवहाररूप श्रमणधर्म का विस्तार से कथन करते है । प्रसङ्गवश प्रशस्तराग के सन्दर्भ मे कहा है"रागो पर बरबिसेमेण फलद विवरी । भूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२२५॥||" जैसे एक ही भूमि की विपरीतना से विप रीत फल वाला देखा जाना है वैसे ही प्रशस्तरागरूप शुभयोग भी पत्र की विनता से विपरीत फल वाला होता है। इससे सिद्ध है कि प्रशस्त राग पात्रभेद से तीर्थकर प्रकृति के बन्धादि के द्वारा मुक्ति का और निदा नादि के बन्ध से संसारबन्ध का दोनों का कारण हो सकता है। श्री जयसेनाचार्य ने २५४वी गाथा की व्याख्या करते हुए इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है
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बुत्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है। इससे वे छोटे ध्यानों से बचते हैं तथा साधु-समति मे निश्चय व्यवहार मोक्ष मार्ग का ज्ञान होता है, पश्चात् परम्परया निर्वाणप्राप्ति होती है ।
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उपसंहाररूप २७४वी गाथा मे शुद्धोपयोगी मुनि को सिद्ध कहकर नमस्कार किया गया है तथा २६५वी गाथा