Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 113
________________ हिन्दी के विकास में जैन कवियों का योगदान डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल, जयपूर हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। सारे देश में इसे यह अपभ्रश एव हिन्दी के विकास काल का काव्य है जव सम्माननीय स्थान प्राप्त है । लेकिन राष्ट्र भाषा का स्थान अपभ्र श शनैः शनै. हिन्दी का रूप ले रही थी।' प्राप्त करने के लिए इसे विगत ८०० वर्षों में अनवरत जैन कवि काव्य को किमी एक विधा से बधे नही संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष मे जैन सन्तो, भट्टारकों रहे किन्तु उन्होने सभी काव्य रूपो को अपनी कृतियो से एव कवियो का सबसे अधिक योगदान रहा। सस्कृत के पल्लवित किया। राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों मे सग्रहीत पर्याप्त प्रचार युग मे भी जैन कवियों ने पहिले अपभ्रंश ग्रन्थो को देखते हए हमारे सामने अनेक नाम सामने आये के रूप में और फिर पुरानी हिन्दी के रूप में छोटी बडी है जैसे स्तोत्र, पाठ, सग्रह, कथा, रसो, रास, पूजा, मंगल, पचासो रचनाये निबद्ध करके अपनी हिन्दी सेवा का जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मत्र, अष्ट, सार, ममुच्चय, वर्णन, ज्वलत उदाहरण प्रस्तुत किया। महापडित राहुल सुभाषित, चौपाई, शुभ मालिका, निसाणी, जकडी, साकृत्यायन न जब महाकवि स्वयम्भू को हिन्दी का आदि ब्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, आरती, बोल, चरचा, कवि घोषित किया और उनके द्वारा निबद्ध "पउमचरिउ" विचार, वान, गीत, लीला, चरित्र, छद, छप्पय, भावना, को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य बतलाया तो हिन्दी का विनोद, कल्प, नाटक, प्रशस्ति, धमाल, चोढालिया, चौमाइतिहास और भी अतीत में चला गया। स्वयम्भू के मिया, बारामासा, बटोई, बेलि, हिंडोलणा, चूनड़ी, पश्चात् पुष्पदन्त, वीर, धनपाल, नयनन्दि, श्रुतकीनि एब सज्झाय, बाराखडी, भक्ति, वदना, पच्चीसी, वत्तीसी, रइधू जैसे पचासों अपभ्र श कवियो ने हिन्दी विकाम का पचासा, लावनी, सतसई, सामायिक, सहस्रनाम, नामामार्ग प्रशस्त किया जिसके महारे हिन्दी भाषा का विकास वली, गुरूबावलो, स्तबन , साधन, मोडलो, फागु, आदि । तेजी से सम्पन्न हो सका।। इन विविध साहित्य रूपो को जैन कपियो ने खुब पल्लहिन्दी के प्रारम्भिक यूग के यदि २-४ रासा ग्रन्थो वित किया है जिनकी बहुमूल्य सामग्री जैन ग्रन्थागारो मे को निकाल दिया जावे तो शेष सभी रास संज्ञक रचनाये सुरक्षित है। जैन कवियो द्वारा निबद्ध मिलेगी। इन कवियो ने सामान्य १४वी शताब्दी के प्रारम्भ म कविवर सघारू हुए na ara tan Aथा हिन्दी के जिन्होन प्रद्युम्न चरित' जैस सुन्दर काव्य को सन १३५४ पठन-पाठन को लोकप्रिय बनाने के लिए कितने ही रास में निबद्ध किया। विद्वाना ने सधारू के प्रद्युम्न चरित को संज्ञक रचनाये निवद्ध की जिनमे भरतेश्वर बाहवलि रास ब्रजभाषा का प्रथम महाकाव्य माना है और उसे मौलिक (११८४ ए. डी.) वन्दन बाला राम (१२५७ ए.डी.) स्थल- कृति वनलाई है। सधारू कवि उत्तर प्रदेश के एरच्छ भद्र रास (१२०६ एडी) नेमिनाथ रास (१२१३ एडी) नगर के निवासी थे। कवि ने अपना निम्न प्रकार परिचय गोत्तम स्वामी रास (१३५५ एडी) के नाम उल्लेखनीय दिया है :हैं। रासा कृतियो के साथ-साथ जैन कवि काव्य कृतियो अगरवाल को मेरी जान, पुर नगरोए मुहि उतपात । लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। इस दृष्टि से जिणदत्त चरित नामक काव्य ग्रन्थ उल्लेखनीय है। कविवर राजसिंह ने साधरू महाराज धरह अवरिउ । इसे १२६७ एडी में निबद्ध किया। ७५३ पद्यों में निबद्ध एरछ नगर बसते जानि, सूण उ चरित महारचिउपराण।

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