Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 123
________________ भाषा बदलाव का क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा ? as well as of the commentary, is Shaurseni in- मूल्य तो भाषा-दृष्टि से बागम के अप्रमाणिक सिद्ध होने fluenced by the order Ardhamagdhi on the पर ही चुकता हो सकेगा। one hand and the Maharashtri on the other, -पडित प्रवर टोडरमल जी सा० प्रतिष्ठित ज्ञाता and this is exatiy the nature of the language थे-उनके 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' को पूर्ण ख्याति हैं। called 'Jain Shaurseni." सम्पादक महोदय ने भी आचार्य कुन्दकुन्द की विदेह-Dr. Heeralal गमन चर्चा के प्रसंग में उन्हे प्रामाणिक मानकर ही उनके (Introduction to षट्खंडागम P IV) मत का उल्लेख किया होगा। इन्ही प० टोडरमल जी ने हमारा अनरग कह रहा है कि स्वर्गो मे बैठे हमारे 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' मे दिगम्बर प्राकृत आगमों के दिवंगत दिगम्बराचार्य उनकी याकरणातीन जनाको गाथाओ के उद्धरण दिए है और उनमें लेइ, जाइ, अक्खेइ, किए गए परिवर्तनो को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे है और थुणिऊण, हवइ, भणिऊण, भणइ और देइ जैसे दकारलोपी उन्हे सन्तोष है कि कोई उनकी ध्वनि-प्रतिकृतियो के मही हर और लोओ जैसे ककार (गकार) लोपी शब्द मिलते हैं। रूप को बडी निष्ठा और लगन से निहार, उनकी सुरक्षा । क्या ये शब्दरूप, आगम मे अप्रमाण है ? जो इनको बदला मे प्राण-पण से सलग्न हैं। भला, यह भी कहाँ तक उचित जाय? इसी मोक्षमार्ग प्रकाशक मे 'इक्क' शब्द का भी है कि शब्द-रूपों को बदल मे दिगम्बर-ग्रागम-वचन तो उद्धरण मिलता है। ऐसे मे भी यदि लोग दिगम्बर मूल गणधर और आचार्यों द्वारा परम्परित वाणी कहलाए आगमो की भाषा को बदल गई हुई मानते हैं। तो वे स्त्रय जाते रहें और बदलाव-रहित दिगम्बरेतर आगमो के ही सिद्ध करते है कि उपलब्ध आगम परम्परित-आगम वाणी नही है, अपितु बदली वाणी है, और बदली होने तद्रूप-वचन बाद के उद्भूत कहलाएँ ? हमे भाषा की दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता मे सन्देह है। क्या दिगम्बरो को से इस विन्दु को भी आगे लाकर विचारना होगा। भविष्य मे ऐसा न हो कि कभी दिगम्बर समाज को इस ऐसा स्वीकार है ? हमारा कहना तो यही है कि हमारे आगमो में व्याकरण की अपेक्षा किए बिना, जहाँ जो बदलाव का खमियाजा किसी बडी हानि के रूप मे भगतना पड जाय ? ऐसा खमियाजा क्या हो सकता है, यह शब्दरूप मिलते है-भाषा की व्यापकता होने और अर्थश्रद्धालुओं को विचारना है—वैज्ञानिक पद्धति के हामी भेद न होने से सभी प्रतियो में वे ठोक है। क्योंकि बाद कुछ प्राकृतज्ञ तो सही बात कहकर भी किन्ही मजबूरियों मे निर्मित हुए व्याकरण की उनमे गति नहीं। जबकि मे विवश जैसे दिखते है । और वे आर्ष-भाषा से उत्पन्न उस हमारे आगमो की भाषा (व्याकरणादि के सस्कारो से रहित) भगवान महावीर आदि की वाणी का स्वाभाविक व्याकरण के आधार पर विद्वान बने है, जो बहुत बाद का है। और शौरसेनी आदि जैसे नामकरण आदि भी वचन व्यापार है। बहुत बाद (व्याकरण निर्माण के समय) की उपज है। उक्त स्थिति के परिप्रेक्ष्य मे हमे सावधान रहने की क्योंकि जन-भाषा तो सदा ही सर्वांगीण रही है। जो जरूरत है। कही ऐसा न हो कि जिनवाणी भीड़ में खो प्राकत में डिगरीधारी नही है और प्राकृत-भाषा के आगमो जाए? और उसका क्रन्दन भी जयकारो की ध्वनि मे का चिरकाल से मन्थन करते रहे है--उन्हें भी इसे सोचना सुनाई ही न पड़े। क्योकि हमें भीड़ और जायकारे ही चाहिए-हमें अपनी कोई जिद नहीं। जैसा समझे लिख सबसे खतरनाक लगे जो धमै को लुटवा रहे है-आत्मदिया-विचार देने का हमे अधिकार है। और आगम- चिन्तन मे बाधक हो रहे है । आशा है सोचेंगे तथा विद्वान् रक्षा धर्म भी। हमारी समझ से बदलाव के लिए जो इस बदलाव को रुकवाएगे। व्यय अभी रहा होगा; वह अत्यल्प होगा-उसका पूरा दरियागज, नई दिल्ली

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