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२०, वर्ष ४१, कि० ४
भनेकान्त
प्राद्यं, प्रवचनं चैव मध्यस्थं सारसंज्ञकम् । प्रवचनसार प्रस्ता०पू० १२ (सोनगढ) आदि ग्रंथों में एवं सम्बोधनाथं भव्यानां चक्र सत्यार्थदम् ॥ अन्यत्र यह श्लोक सैकड़ो जगह मिलता है। शास्त्र
स्तवनं चित्तरोधार्थ रचयामास स मुनिः । [सूर्यप्रकाश स्वाध्याय के प्रारम्भ मे मगलाचरण में भी इसे बोला ३४५-३५०]
जाता है। पर यह किसका है और कबका है, यह कही भावार्थ-यहाँ कुन्दकुन्द की रचनाओ का विवरण नही मिला। अत: मूल पाठ बताना सम्भव नही है । वैसे दिया जा रहा है। जिसमे ने मचन्द्र ने कहा है कि दोनों में से कोई भी सिद्धांतधातक तो है नही। अनुष्टप कुंदकुन्द मुनि ने पहले पचास्ति भय और अन्त मे समयमार श्लोक भी किसी भी पाठ से भग नहीं होता। रचा। मध्य मे प्रवचनसार रचा। अत: मुनि कुदकुद ने ३. प्रश्न-मयुर पिच्छी का चलन कबसे हुआ ? किस सभी रचनाओं के अन्त मे समयसार रचा। (ग्यणसारा शास्त्र में विधान है? प्रस्ता०पृ० १६, डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री)
उत्तर-आगम मे लिखा है कि-- जो धूलि और ___E समयसार तो निर्विवाद रूप से कुदकुद की ही पसीने को न पकड़ती हो, कोमल स्पर्श वाली हो, सुकुमार रचना है इसमे समस्त विद्वान् तथा सभी पक्ष (तेरह पथ, हो और हल्की हो उस पिच्छो की गणधर-देव प्रशसा बीस पंथ, तरणपथ, गुमानपंथ, मूमुक्षुमण्डल) एकमत है। करते है । मूल गाथा इस प्रकार हैA. N. उपाध्ये, जुगलकिशोर मुख्तार एव नाथुराम जी रयसेयाणमगहणं महव सुकुमालदा लघुत्तं च । प्रेमी जैसे इतिहासज्ञो ने भी समयसार को तो निर्विवाद जत्थेदे पच गुणा तं पडिलिहण पससति ।। रूप से कौन्दकुन्दीय कृति ही माना है। 'विमतानामपि यह गाथा मूलाचार समयसाधिकार ६१२ तथा ऐक्य यत्र कि प्रमाणेन तत्र।" भिन्न-भिन्न मत वाले भी जिस भगवती आराधना ६७ के रूप में बिना पाठान्तर के, विषय में ऐकमत्य रखते हो उसमें प्रमाण की आवश्यकता दोनों ग्रयो मे उपलब्ध है । लगभग ६०० वर्ष पूर्व सिद्धांतही क्या है?
चक्रवर्ती बसुनन्दि ने इसी मूलाचार की आचारवृत्ति मे ____F आध्यत्मिक सत्पुरुष धीमद् राजचन्द्र ने एक पत्र लिखा थामें लिखा था
A मयूर पिच्छग्रहरणं प्रशसति अभ्युपगच्छन्ति आचार्या "पत्र और समयसार की प्रति मिली। कंदकंदाचार्य गणधर देवादय - कृत समयसार ग्रन्थ भिन्न है। ग्रन्थक अलग है, और
(अर्थ----मयुगपिच्छी का ग्रहण करना गणधरादिक ग्रन्थ का विषय भी अलग है। (ग्र उत्तम है) यह पत्र द्वारा भी प्रशसनीय है) । (गा० ६१२ मूनाचार) श्रीमद् जी ने. सं. १६५६ ज्येष्ठ शु० १३ सोमवार को
B आगे भी देखिए ---- श्री मुमुक्ष सुखलाल छगनलाल को वीरमगाम लिखा था। प्राणसयमपालनार्थ प्रतिलेखनं धारयेत् मयुरपिच्छिका उक्त तिथि को श्रीनद जी ववाणिया विराजमान थे। ग्रहीयात् मिक्षुः साधुरिति । (गा०६३ की आचारवत्ति) (श्रीमद् २०७४४ व १८०) इससे अत्यन्त स्पष्ट है कि
अर्थ-- 'प्राणिरक्षा हेतु मुनिराज मयुरपंखों की
पिच्छिका ग्रहण करे। (पृ० १२१, भाग २ मूलाचार समयसार ग्रन्थ दो हैं। इतना अत्यन्त स्पष्ट है। पर
ज्ञानपीठ) कुंदकुदाचार्य कृत ४१५ गथाओं या ४३७ गाथाओं वाला
C आगे लिखा है(गाथा ६१५, पृ० १ २ ज्ञानपीठ): समयसार तो निविवादतः कौन्दकन्दीय ही है।
न च भवति नयनपीडा चक्षुषो व्यथा अक्षिण नयनेऽपि २. प्रश्न----मंगल भगवान् वीरो' 'आदि श्लोक किसकी
भ्रामिते प्रवेशिते प्रतिलेखे मयुरपिच्छे रचना है ? इस श्लोक में मगलं कुंदकुंवार्यों ठीक है या
अर्थ-मयुरपिच्छी को तो नेत्रों में फिराने पर भी मंगलं कुंदकुंदाद्यो ठीक है ? यह श्लोक किसने रचा?
पीड़ा नहीं होती, इतनी नरम होती है। उत्तर-कुदकुंदप्राभृतसग्रह प्रस्ता० पृ० १, तीथंकर
वही आगे लिखा है--न च प्राणिघातयोगात्तेषामहावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग २, पृ. ६६,
(शेष पृ० २८ पर.)