Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 127
________________ प्राप्त कुछ प्रश्नों के उत्तर 0 जवाहरलाल मोतीलाल भीण्डर १. प्रश्न---"समयसार" कुन्दकुन्द की कृति है, इसका अधिकार की शुद्धिपूर्वक पीठिका सहित व्याख्यान किया मूल उल्लेख कहाँ है? जा रहा है। उत्तर-A कुन्दकुन्द ग्रन्थोंके टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि Bउन्ही जयसेन प्राचार्य ने अन्तिम मगलाचरण में तथा जयसेन ये दो आचार्य प्रधनतः हुए हैं। अमृतचन्द्र ने कहा है-- अपने मूल ग्रन्थकर्ता के विषय में कुछ भी निर्देश नहीं जयउ सिरि पउमणंदी जेण महातच्चपाहुडसेलो। किया है। पर जयसेन आचार्य ने समयसार की टीका के बुद्धिसिरेणद्धरिओ समपिओ भव्वजीवस्स ।।१।। प्रारम्भ मे लिखा है अर्थ-ऋषि पद्मनदि (कुन्दकुन्द) जयवन्त वो, जिनके अथ शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादन मुख्यत्वेन विस्ताररुचि द्वारा महातत्त्वप्राभूत यानी समयप्राभ नरूपी पर्वत बुद्धिशिष्यप्रतिबोधनार्थ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव निर्मिते समयसार रूपी शिर पर धारण कर (उठाकर) भव्य जीवो के लिए प्राभूतग्रन्थे अधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन पातनिकासहित व्याख्यान क्रियते। समर्पित किया। अथ-यहाँ शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादन को मुख्यता से कुन्दकुन्द का नाम पद्मनन्दि है यह निर्विवाद है। विस्तार में रुचि रखने वाले शिष्यो को प्रतिबोधन करने [तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग श्री कुन्दकन्द द्वारा बनाए हए समयसारप्राभूत ग्रन्थ मे रा१०२-३] C गोगामृत, ३ मे लिखा है(पृ० १८ का शेषांश) आचार्योवत्तमराप्तरि तिलिद तत्वज्ञानिगन कोंडकप्राप्त सुख का सेवन करना चाहिए। जैसे-सज्जन पुरुष वृक्ष की रक्षा करते हुए ही उससे उत्पन्न फलों को खाया डाचार्य मकलानुयोग दोलग तत्सारमकोडु पूर्वाचार्यावलिकरते हैं। योजेयिं समयसार ग्रंथममाडि विद्याचातुर्य मनी जगक्के दार्शनिक कोटि के साहित्यकार अमितगति ने जीवन मेरेदर चारित्र चक्रेश्वरर ।। के मानव मूल्यो को सुसंस्कन करने के लिए सत्येष मैत्री अर्थ-आप्तस्वरूप, आचार्यों में उत्तम, महान तत्त्वकी उद्घोषणा, सदाचरण की प्रतिष्ठा, धर्मनिष्ठा. देव- ज्ञानी, चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने सम्पूर्ण महत्ता, आध्यात्मिकता, कर्मफल, जातिवाद की निःसारता, अनुयोगों के मार का मन्थन कर पूर्वाचार्य परम्परा से योगिक प्रवृत्तियाँ, और साहित्य सिद्धातों की विवेचना प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान को "समयसार" की रचना के आदि विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया है। इस प्रकार द्वारा, अपनी स्वानुभव विद्या चातुरी के रूप में, इस अमितगति के साहित्य रूपी उद्यान में बिविध वाणिक जगत् में सुकीति को प्राप्त हुए । [रयणसार । पुरोवचन । चमत्कारजन्य कल्पना शक्ति का वैशिष्ट्य, भावों की मोह- १०८।डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच] कता, भाषा की सुगमता, लालित्य और आलंकारिक छटा उक्त प्रमाण भी समयसार को कुन्दकुन्द रचित बताता रूपी विभिन्न पुष्पों की सुरभि प्रत्येक पद्य में पाठक, श्रोता D श्री नेमिचन्द्र ने सूर्यप्रकाश में कहा हैऔर अनुयायियों को अपने वैशिष्ठ्य अद्यावधि सुवासित कर रही है, तथा युग-युगों पर्यन्त सुवासित करती रहेगी। अन्ते समयसार च नाटक च शिवार्थद । - ०: पंचास्तिकायनामाढ्य वीरवाचोपसंहितम् ॥

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