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प्राचार्य प्रमितगति :भ्यक्तित्व और कृतित्व
देते । अतः विषय को पृथक-पृथक रूप से निबद्ध करने के शैली । पद्य के पूर्वार्ध में प्रश्न और उत्तर दोनों को सन्निलिए उन्होने निम्नलिखित मौलिक ग्रथों की रचना की विष्ट करके प्रश्नोत्तर शैली के सुन्दर निरूपण से आचार्य
का कला-कौशल निदर्शित है(१) सुभाषितरत्नसदोह,
किमिह परमसौख्यं नि:स्पृहत्वं यदेतत्, (२) अमितगति श्रावकाचार,
किमथ परम दुःखं सस्पृहत्वं यदेतत् । (३) धर्मपरीक्षा,
इति मनसि विधाय त्यक्तसंगा: सदा ये, (४) तत्त्वभावना,
विदधति जिनधर्म ते नराः पुण्यवन्तः ।। (५) भावना द्वाविंशतिका (सामयिक पाठ),
(सुभाषितरत्नसदोह, १४) इसके साथ ही आचार्य श्री ने अलिखित ग्रथों को अर्थात्-ससार में उत्कृष्ट सुख क्या है ? नि:स्पृहता प्राकृत भाषा से सस्कृत भाषा मे रूपान्तरित किया है - -विषयभोगों की अनिच्छा ही उत्कृष्ट सुख है । उत्कृष्ट (१) पञ्चसंग्रह,
दु.ख क्या क्या है ? सस्पृहता-विषयभोगाकांक्षा ही (२) मूलाराधना,
उत्कृष्ट दुःख है । इस प्रकार विचार करके जो भब्य जीव उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त वर्धमान-नीति, जम्बू- परिग्रह का त्याग करते हुए निरन्तर जिनधर्म की आराधना द्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, ब्याख्या प्रज्ञप्ति एवं सार्द्धद्वय करते है, वे पुण्यशाली है। द्वीप प्रज्ञप्ति की रचना का श्रेय भी श्री अमित गति को महाकवि अमितगति के साहित्य में माधुर्य और प्रसाद दिया जाता है, परन्तु ये रचनायें अद्यावधि अनुपलब्ध है। गुण का बाहुल्य है, परन्तु यथास्थान ओजगुण को भी
श्रतपरम्परा के सारस्वत आचार्य अमितगति अपनी सुदृढ़ स्थिति है। जिसके अनुरूप वैदर्भी, गोडी, लाटी एवं निरूपण कला मे पूर्ण कुशल है। विषय की सरल-सरस पाञ्चाली रीतियों का सन्निवेश है। विनोक्ति अलंकार से स्वाभाबिक अभिव्यक्ति के लिए इनके साहित्य मे विविधता अलकृत प्रसाद गुण युक्त प्रस्तुत पद्य की मनोहरता निदर्शन का दिग्दर्शन होता है। जिसमें भाषा, शैली, गुण, रीति, रस नीय है--- छन्द और अलकारों का वैविध्य मुख्य है।
सस्यानि बीजं सलिलानि मेघ, विलक्षण प्रतिभा के धनी अमितगति का सस्कृत एवं
घृतानि दुग्धं कुसुमानि वृक्षं । प्राकृत भाषा पर असाधारण अधिकार है, जिसे इन्होने
काङ्क्षत्यहान्येष बिना दिनेश, स्वय स्वीकार किया है। धर्म-परोक्षा नामक मौलिक ग्रथ
धर्म विना काङ्क्षति यः सुखानि ॥ रचना मात्र दो माम और मूलाराधना नाम : प्राकृत ग्रथ
(अमितगति श्रावकाचार ६,२६) का सस्कृत रूपान्तरण चार मास की अल्पावधि में ही अर्थात्-धर्म सेवन के बिना सुख की इच्छा करना; पूर्ण किया है। अचार्य की ममग्र मौलिक कृतियो की बीज के धान, मेघ के बिना जल, दूध के बिना घी, वृक्ष भाषा प्राञ्जल, ललित. सरस, विशुद्ध सस्कृत है। संस्कृत के बिना पुष्प, सूर्य के बिना दिन चाहने के समान मुर्खता के साथ ही प्राकृत व्याकरण एव कोश पर भी इनका है। अत: धर्म धारण करने पर ही सुखो की प्राप्ति संभव प्रकाम अधिकार है।
विषयानुरूप आचार्य ने अपनी कृतियो मे विविध छन्दोवैविध्य अमितगति की काव्यगत प्रधान विशेषता शैलियों को प्रश्रय दिया है । जिसमे मुख्पत; शैलियां इस है। जिसमें मुख्यत: आर्या, अनुष्टुप्, विद्युन्माला, इन्द्रवज्रा, प्रकार है-- माधुर्य और प्रसादगुण युक्त प्राञ्जल शैली, उपेन्द्रवजा, उपजाति, द्रुतविलम्बिन, वशस्यविल, भुजंगउपदेशात्मक शैली, ताकिक शैली, द्रष्टान्त शैली. व्यगात्मक प्रयात, वसन्ततिलक मालिनी, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता, शैली, प्रश्नोत्तर शैनी, यमाहार शैनी, सर्जक शैली, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा जैसे प्रचलित छन्दो के साथ आध्यात्मिक शैली, विवेचनात्मक शैती एव सामासिक ही स्वागता, शालिनी, अनुकूला, दोधक, रथोद्धता तोटक