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१८ वर्ष ४१, कि० ४
भनेकान्त
रुचिरा, प्रहरणकलिका, हरिणी, पृथ्वी एवं सरसी जैसे के क्षणिक आनन्द की भांति नही । अप्रचलित छन्दों का भी विपुल प्रयोग है।
युगद्रष्टा श्री अमितगति का मात्र काव्यशास्त्रीय पक्ष श्री अमितगति साहित्य के अध्ययन-अनुशीलन से ही प्रबल नही है। उन्होंने सैद्धान्तिक गूढ़ विषयों को भी प्रतीत होता है कि कवि ने जान-बूझकर अलंकारों का अपने चितन द्वारा अल्प पयों में ग्रथित करके धारावाहिक प्रयोग नहीं किया है, वरन् अलकारिक सौन्दर्य विषय की शैली मे सुसज्जित किया है। जैन वाङमय के गूढ़तम सहज अभिव्यक्ति मे स्वाभाविक रूप से अभिभूत है। सिद्धांत-कर्मसिद्धांत को भी प्रस्तुत मात्र दो पद्यो द्वारा उनकी रचनाओं में शब्दालंकार और अर्थालकार दोनो के प्रतिपादित किया हैलक्षण पर्याप्त मात्रा में घटित होते हैं, जिनमे अनुप्रास, स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, यमक, श्लेष जैसे मुख्य शब्दालंकार और उपमा, मालोपमा
फल तदीय लभते शुभाशुभम् । उत्प्रेक्षा, समन्देह, रूपक, अतिशयोक्ति, दृष्टान्त, दीपक,
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट, अर्थान्तरन्यास, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, ब्याजस्तुति,
स्वय कृत कम निरर्थकं तदा ।। सहोक्ति, विनोक्ति, परिसंख्या, व्यतिरेक, उत्तर, कारण- निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, माला, काब्यलिंग एव भ्रान्तिमा7 आदि अर्थालकारों की
___ न कोऽपि कस्यापि ददाति किचन । पुनरावृत्ति दर्शनीय है।
विचारयन्नेवमनन्यमानसः, विद्याधर नरेश जितशत्रु के गुणो के वर्णन में परि
परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् ॥ संख्या अलंकार का सौन्दर्य प्ररूपित है
अर्थात्-अपने पूर्वोपार्जित कर्म ही प्राणियों को शुभ अन्धोऽन्यनारीरवलोकितुं यो,
और अशुभ फल देते हैं, अन्य कोई नहीं । यदि अन्य कोई न हृद्यरूपा जिननाथमूर्तिः ।
भी सुख-दुःख देने लगे तो अपने किए कर्म निष्फल ही निः शक्तिकः कर्तुमवद्य कृत्यं,
ठहरेंगे; परन्तु ऐसा नहीं होता, जो :म कर्ता है वही फल __ न धर्मकृत्यं शिवशर्मकारी ।
भोगता है, यही सत्य है । ससारी प्राणियो को स्वय उपा
(धर्मपरीक्षा, ६,३४) जित कर्मों के सिवाय अन्य कोई व्यक्ति किसी को कुछ भी अर्थात-विद्याधर नरेश जितशत्र यदि अन्धे थे तो
नही देता। इस प्रकार विचार करके 'पर देता है' ऐसी परस्त्रियों को देखने में, न कि मनोहर आकृति को धारण
बुद्धि का त्याग कर निज शुद्ध स्वरूप मे रमण करना करने वाली जनेन्द्र प्रतिमा के दर्शन करने में । इसी
चाहिए। प्रकार असमर्थ थे तो पापकार्यों को करने मे, न कि मोक्ष
आचार्य अमितगति का साहित्य प्राय: उद्बोधन प्रधान सुख प्राप्त कराने वाले धर्मकार्यों में।।
है। जिसमे आचार्य श्री ने अपने उपदेशो को सुभाषितों के प्रकति के सर्वथा अनुकूल तपस्वी आचार्य की लेखनी माध्यम से व्यजित किया है। लौकिक और अलौकिक का चमत्कार शान्तरम की अतिशयता है, परन्तु काब्य में अभ्युदय के लिए धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक सभायत्र-तत्र विषयानुरूप द्विबिध शृंगार, हास्य, करुण, रोद्र, षित पद्यों को कही-कही तो निर्भर के जवप्रवाह के समान वीर वीभत्स एव अदभुन रस की अनुभूति भी होती है। झडी-सी लगाई है। जिनका अनुपम सौन्दर्य पद-पद पर कवि द्वारा शृगार, हास्य, करुण प्रादि रसो का वर्णन ना प्रधान रूप से न होकर मात्र उपदेशात्मक शैली के माध्यम
संपन्नं धर्मत: सौख्यं निषेव्य धर्मरक्षया। से इनकी हेयता के प्रतिपादन मे हुआ है। इस प्रकार
वृक्षतो हि फलं जातं भक्ष्यते वृक्षरक्षया । भयानक रस के अतिरिक्त अष्ट रसों का अनुपमेय चित्रण
अर्थात्-प्राणियों को धर्म के निमित्त मे ही सुख पाठको अथवा श्रोताओं को स्थायी रसानुभूति को आर प्राप्त हआ है। अतएव उन्हें धर्म को रक्षा करते हुए ही प्रेरित करते है, षटरसों से परिपूर्ण व्यंजनो के रसास्वादन
(शेष पृष्ठ १६ पर)
पिरामकारा