________________
भाषा बदलाव का क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा ?
T] पचन्द्र शास्त्री, संपादक 'अनेकान्त'
ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा-शास्त्रियों ने प्राकृत उन्हें झुठला रहे हैं-उनके कथन की अवहेलना कर रहे भाषाओं के विकास काल को ईसापूर्व प्रथम शताब्दी (जो हैं। उपाध्ये का स्पष्ट कथन है-"Jn his observation कुन्दकुन्द का काल है) को स्थिर किया है। उक्त काल में on the Digamber texts Dr. Deneke discusses त् और थ् मे परिवर्तन होते होते प्रथम तो वे (क्रमशः) various paint above some Digamber Prakrit द् और ध् हुए, फिर क्रमशः द् का लोप हो गया और works. He remarks that the Language of ध के स्थान में है. का प्रयोग होने लगा-ऐमी स्वीकृति there works is influened by Ardhamagdhi, समयसार (कदकद भारती) सम्पादक द्वारा लिखित Jain Maharashtri which approaches it and प्राक्कथन (मुन्नडि) में है और उन्होने समयसार मे थ् के Shaurseni ध् ओर है, मे परिवर्तित दोनों रूपो के मिलने की पुष्टि
---Dr. A. N. Upadhye. भी गाथा ६८ और २३६ के द्वारा की है। पर, वे द् के
(Introduction Pravachansar P. 116) लोप की स्वीकृति के बाद उसके लोप की पुष्टि मे उदा
उक्त कथन के अनुसार दि० आगमो मे होइ, होदि,
हवदि, हवइ जैसे सभी शब्द रूप मिलते है और लोए हरण देने से चूक गए। जब कि समयसार तथा प्राकृत के
लोगे आदि भी मिलते है तब उनमे एक शुद्ध शब्द को दि० आगमों मे द् लोप और अलोप दोनो मांति के शब्दो
बदलकर दूसरा शब्द रखने की क्या आवश्यकता थी? क्या (रूपो) को बहुलता है) फलत:-उन्होने होदि से होइ
इससे भाषा की व्यापकता नष्ट नही होती ? रूप में परिवर्तित (द के लोप जैसे) रूपो का कोई उदा
हाल ही मे आ० श्री विद्यानन्द जी के सम्प्रेरकत्व में हरण प्रस्तुत नहीं किया। शायद इसमे कारण यही हो
उदयपुर से प्रकाशित 'शौरसेनी प्राकृत व्याकरण' जो कंदकि उन्हें भाषा-विकास काल मे द् का लोप स्वीकार
कुद भारती दिल्ली से भी प्राप्य है, मे लिखा हैकरने पर भी “दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तोः" जैसे शौरसेनी के नियम में बंधे-द के अस्तित्व रूप मोह
__ "प्राकृत शब्द का अर्थ है-लोगो का व्याकरण प्रादि को छोड़ना श्रेयस्कर म ऊंचा हो क्योंकि वे शौरसेनी और
के संस्कारों से रहित स्वाभाविक वधन व्यापार। उस जैन शौरसेनी को एक मान बैठे है। फलतः उन्हें इस बात
वचन व्यापार से उत्पन्न अथवा वही वचन-प्रयोग ही का भी ध्यान न आया कि वे (डा. ए. एन. उपाध्ये और
प्राकृत भाषा है। इस लाक प्रचलित प्राकृत भाषा को डा. हीरालाल जैन की भांति) यह भी स्वीकार कर बैठे
भगवान महावीर और बुद्ध जैसे क्रान्तिकारी महापुरुषों ने हैं कि "जैन शौरसेनी मे महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अपने विचारों के सम्प्रषण की भाषा स्वीकार की थी।" अनेक शब्द मिलते हैं"-(मुन्नुडि पृ. ६) उक्त सपादक
......"आज कोई भी ऐमी प्राकृत नही है, जिसमें अपनी अपने को प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक और क्रमबद्ध विकास समकालीन अन्य प्राकृतों का मिश्रण न हुआ हो...." के ज्ञाता भी मानते हैं । (जैन प्रचारक नवम्बर ८८) इसमे यह भी लिखा है-... . . 'और न ही शौरसेनी
जो सम्पादक महोदय कुन्दकुन्द के समय की सिद्धि में के सिद्धान्त प्रन्थों अथवा नाटकों की शौरसेनी की भाषा डा. ए. एन. उपाध्ये के कथन को प्रमाण मान रहे हैं वे के सम्पादन कार्य मे मनमाने पाठ देने चाहिए । सम्पादनही जैन-शौरसेनी के रूप के सम्बन्ध मे (अपनी प्रवृत्ति से) कार्य की जो पद्धति है एवं प्राचीन पाण्डुलिपियों में जो