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आपली काल तक अनन्तानुबन्धी
सत्त्व का स्वामित्व बताया। तो क्या जघन्य अनूभाग कारण उसका अनुदय कहते या मानते तो चरम समय को सत्व होने मात्र से किसी भी कम सिद्धान्त के ग्रन्थ मे उक्त अपेक्षा वहा एक मात्र योग प्रत्यय ही रहता। इस तरह सुक्ष्म-निगोद-अपर्याप्त को अमिथ्यात्वी कहा है क्या? दसवे गुणस्थान में उत्कृष्टतः दो प्रत्यय [सज्वलन लोभ व नहीं । तो फिर आगमकार जघन्य अनुभाग युक्त अनन्ता- योग । दसम गुणस्थान के प्रथमादि द्विचरम समय तक को नबन्धी के सत्त्व के स्वामी जीव के यदि जघन्य भी उदय अपेक्षा] तथा जघन्यः [सूक्ष्ममाम्पराय के चरम समय की होता तो अवश्य ही उसे जघन्य उदय वाला कहते; "अनु- अपेक्षा] एक प्रत्यय [मात्र योग रूप]; ऐसे दो स्थान दय" वाला नही। हम अन्य उदाहरण से और भी स्पष्ट [१२ प्रत्यय रूप] बन जाते । परन्तु कर्म शास्त्रो मे दसम
[१:२ प्रत्यय रूप] बन जाते । परन्त: करते है :
गुणस्थान में सर्वत्र जघन्यादि भेद बिना दो प्रत्ययों का एक जयधवला पू. ५ पृ. १५, ३० तथा पृ. २५६ तथा ही स्थान बताया है [देखे गो. क.प्र. ७२१ आयिका गो. क. गाथा १७० के अनुसार लोभ का जघन्य अनुभाग आदिमती जी स० रतनचन्द मुख्तार; धवल पु. ८ पृ. २७ सत्त्व दसवे गुणस्थान के चरम समय में होता है तथा इसी अभिनव सस्करण, प्राकृत पंचसग्रह । शतक । गाथा २०३ समय लोभ का जघन्य अनुभाग उदय है। इस समय व टी का पृ. १६७ । सस्कृत पचसग्रह ४।६८-६९ आदि । स्थिति मत्ता एक समय प्रमाण ही है तब यहां एक स्थिति
इसी से अत्यन्त स्पष्ट सिद्ध है कि सूक्ष्मसाम्पराय के मे स्थित जो अनुभाग है वह 'जघन्य उदय' व्यपदेश को
चरम समय में सर्व जघन्य स० लोभ का अनुभाग उदय प्राप्त है। अर्थात् चरमसमयी सूक्ष्म माम्प रायिक क्षपक के
भी "उवय" कहा व माना गया है, सर्वत्र । फिर सज्वलन लोभ का जघन्य अनुभागोदय है [धवला पु. १०२६६,
लोभ के जघन्य अनुभाग सत्त्व से जिसका जघन्य अनुभाग १८४ आदि] | फिर ऐसी जघन्य कषायानभाग के उदय को भी अनुदय नही कहा। सब कर्म शास्त्रों मे उदय ही
सत्त्व अनन्तगुणा है ऐमी अनन्तानुबन्धी कषाय के अनुभाग
उदय को अनुदय कैसे कहा जा सकता है ? कहा है तथा प्रत्यय मे भी गिनाना है [देखे धवल ८।२७] इसे दसम गुणस्थान में अप्रत्यय नही कहा । दसवे गुण
वास्तव मे तो उस मिथ्यात्वी के प्रथम आवली में स्थान के जनन्त समय में सज्वलन लोभ का उदय समस्त अनन्तानुबन्धी का पूर्णतः अनुदय है इसलिए अनुदय कहा सिद्धान्त शास्त्रों में कहा है। कही भी ऐसा नही कहा कि है । यदि ईषद् अनुभाग उदय की अपेक्षा "अनदय" कहा दसवे गुणस्थान के अन्तिम समय मे लोभ का अनुदय है। है, ऐसा तर्क दिया जाय तो वह निष्टीक [गतिरहित तथा यदि उस समय लोभ का अनुदय माना जाय तो चरम- निराधार अनागम-विहित] होगा, क्योंकि अनन्तानबन्वी समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय के परिणाम तथा उपशान्त कषाय के जघन्य अनुभाग सत्त्व से भी अनन्तगुणोहीन अनुभागवीतरागछपस्थ अथवा केवली के परिणाम समान मानने सत्व वाले संज्वलन लोभ के उदय को भी चरमसमयी पड़ेगे । अथवा यो कहे कि चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय में "उदय" ही कहा । फिर इस अनन्तानुसूक्ष्मसाम्पराय ही नही कहला कर क्षीणकषाय अथवा बन्धी का यदि वास्तव मे प्रथम आवलिवर्ती मिथ्यात्वी के उपशान्त कषाय कहलायगा, जो कि किसी को भी इष्ट नही उदय होता तो निश्चित ही उदय कहते । क्योकि इस ईषद् है। अत: यद्यपि दसवें गुणस्थान के चरम समय मे संज्व अनुभाग मत्व से अनन्तगुणे हीन अनुभाग के सत्त्व व उदय लन लोभ का जघन्य अनुभाग उदय है तथापि दिगम्बर को भी प्राचार्यों ने स्पष्टत: उदय कहा; अनुदय नही कहा। कर्म ग्रन्थों में उस चरम समय मे उदय ही कहा है, अनुदय कहा भी है-सब्वमदाणुभागं लोभसजलणस्स अणुभागनही कहा है तथा चरम समय तक सज्वलन लोभ रूप सतकम्मं ............."अर्णताणुबंधिमाणजहणणाणभागो कषायप्रत्यय सब शास्त्रो में गिना है। कहीं भी दसवें गुण- अणंतगुणो ....."[जयधवल पु. ५ पृ. २५९.२६४] । स्थान में कषाय प्रत्यय को कम नही किया। दसवें गुण- अर्थ-सज्वलन लोभ का जघन्य अनुभागमत्व [जो स्थान मे यदि चरम समय मे जघन्य अनुभाग उदय के कि सूक्ष्मसाम्पराय चरमसमयवर्ती के होता है सबसे मन्द