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मावली काल तक मनम्तानुबन्धी
है। [अनुवाद पं० हीरालाल सि० शास्त्री सा०] मान प्रथम निषेक से लेकर एक आवली (उदयावली)
(vi) उसी ग्रन्थ मे सप्ततिका गा० ३२६ में कहा है- पर्यन्त के निषकों की लड़ी में अनन्तानुबन्धी का एक पर. मिच्छाइटिस्सोदयभंगा अठेव होति जिण भणिया ॥ माण भी नही है। आवलोकाल के बीत जाने पर उदय. अर्थ-मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबन्धी के उदय सहित
उदीरणा सम्भव है। क्योकि उस समय, प्रथम समयवर्ती १० आदि ४ स्थान [१०, ६, ८,७] और अनन्तानुबन्धी
मिथ्यात्वी के जो उदयावली से ऊपर द्वितीयावली का प्रथम के उदय रहित वाले ४ स्थान [६, ८, ७, ६]; इस प्रकार
अनन्तनुबन्धी-निषेक था वह आवली काल बाद उदय८ उदयस्थान जिनेन्द्र भगवान ने कहे है ।
समय [उदय-क्षण] को प्राप्त होता है। उसी समय
अनन्तानुबन्धी के उदय का प्रथम समय होने से उसी (vii) जयधवल पु० १० पृ० ११६-१७ पर जिनसेन
समय उदयावनी-बाह्य स्थित इस अनन्तानुवन्धी की स्वामी लिखते हैं कि
उदीरणा भी प्रारम्भ होती है। ___अणंताणुबधिणो विसजोइय इगिवीसपवेसय भावेणावदिदस्स उवसमसम्माइट्ठिस्स मिच्छत्त-वेदयसम्मत्त-सम्मा
(i) इन सब प्रमाणो से निम्न बातें फलित होती हैंमिच्छनसासणसम्मत्ताणमण्णदरगुणपडिवत्तिपढमसमए पय
(A) यह सर्वाचायं सम्मत बात है कि विसयोजक दट्ठाण-सभवणियमदसणादो।
के मिथ्यात्व मे जाने पर उसके बन्धावली काल तक ___अर्थ-अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर इक्कीस ।
अनन्तानुबन्धी का उदय नही रहता। न तो तत्काल वद्ध प्रकृतियो के प्रवेशक भाव से अवस्थित उपशम सम्यग्दृष्टि
अनन्तानुबन्धी का ही प्रथमादि समयों में उदय सम्भव है, जीव के मिथ्यात्व वेदकसम्यक्त्व, सम्यग्थ्यिात्व और और न उतने काल तक अनन्तानुबन्धी रूप परिणत द्रव्य सासादन सम्यक्त्व; इनमें से किसी एक गुणस्थान को प्राप्त का भी उदय सम्भव है। अर्थात् उस एक प्रावली काल होने के प्रथम समय में प्रकृत स्थान के सम्भव होने का अनन्तानबन्धी ४ के एक परमाण का भी उदय पूर्णत: नियम देखा जाता है।
असम्भव है। विशेषार्थ-जिस उपशम सम्यग्दृष्टि ने अनन्तानुबन्धी (B) यदि यह कहा जाय कि एक आवलो काल तक कषाय की विसयोजना की है वह जब मिथ्यात्व प्रकृति के उदीरणा ही असम्भव है, उदय असम्भव नहीं। तो इसके अपकर्षण द्वारा उदीरणा करके मिथ्यात्व भाव का अनुभव उत्तर मे विनीत निवेदन है विसयोजक के मिथ्यात्व मे करता है तब उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी ४ का आने पर प्रथम आवली काल में अनन्तानुबन्धी का उदय बन्ध भी होता है और अप्रत्याख्यानावरणादि रूप द्रब्य नही होता [धवल पु०१५ पृ० २८६ पं० ४-५, धबल १५ को अनन्तानुबन्धी रूप से संक्रान्त कर उसका उदयावली प.५१ से १७ आदि] तथा उदीरणा भी नही होती। से बाहर निक्षेप भी करता है। किन्तु उस समय अनन्तानु- [जयधवल पु० १० पृ० ५४, धवल पु० १५ पृ० ७५ बन्धी ४ का उदयावली में प्रवेश नही होता, इसलिए ऐसा आदि। मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम समय मे २२ प्रकृतियो का ही
में प्रवेशक (प्रवेश कराने वाला होता और फिर एक बात और: अर्थात् विसपोजक के मिथ्यात्वी होने पर उस जीव के इकनालीस प्रकृतियो [दो वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेप्रथम समय में तो अनन्तानुबन्धी की उदीरणा तो अति दूर न्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश:रहो, उसका उदय भी दूर रहो; अरे ! उस समय मे तो कीति, तीर्थकर, उच्चगोत्र, ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, उस अनन्तानुबन्धी-चतुष्क के द्रव्य का एक परिमाणु भी ५ अन्तराय, ४ आयु, ५ निद्रा, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, तीनों उदयावली में प्रवेश ही नहीं करता। फिर उस समय उसका वेद, सज्ववन लोम] के ही उदय व उदीरणा के स्वामित्व उदय कैसे बनेगा? यह स्थिति प्रथम समय की है उदीय- में भेद है। इन ४१ के शिवाय शेष बची १०७ प्रकृतियो