Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 118
________________ १०, वर्ष ४१, कि०४ अनेकान्त के उदय के स्वामियो से उदीरणा के स्वामियो में अश प्रदेश का पूर्णत. अनुदय ही कहा है। इसलिए उक्त तर्क भर भी भेद नहीं है। ठीक नहीं है। प्रमाण-पंचसंग्रह ज्ञानपीठ | पृ०५१६-५२२ (ii) दूसरा यह भी निवेदन है कि जयधवल पु० ५ प्रकरण ५। ७३ -७५, गोम्मटसार क० २७८-८१, पृ० १८२ पर जो अनन्तानुबन्धी के जघन्य अनुभाग के कर्मस्तव ३६-४३, संस्कृत पचसंग्रह ३। ५६ से ६०; स्वामित्द का कथन किया है वह मात्र अनुभाग सत्त्व के सर्वार्थसिद्धि [ज्ञानपीठ] पृ० ३४६-४७, राजवार्तिक स्वामियो का कथन है, अनुभाग उदय के स्वामियो का भाग २ पृ० ७६३-६४ तथा धवला जी पु० १५ पृ० ५४ कथन नही है । इसके लिए हम मूल आगम ही लिखते है। से ६१ आदि । यथा : -- अणताणुबधीण जहण्णयमणुभागसतकम्म कस्स ? अत: इस सर्वागम सम्मत बात से यह काच के माफिक सुगम । पढमसमयसजुतस्स । सुहमे इंदिएसे जहण्णसामित्त स्पष्ट है कि अनन्तानुबन्धी का जब-जब उदय होता है तब- किण्ण दिण्ण ? ण, पढमसमयसंजुतस्स पचग्गाणुबध पेक्वितब नियम से उदीरणा भी उसकी होती है। यह निष्कर्ष दूण सुहमणिगोदजहणाणुभागसत-कम्मस्स अणतगुणध्र व सत्य है। क्योकि अनन्तानुवन्धी, ४१ अपवाद प्रकृ- तादो। (ज० ध० ५।१६६---६७)। तियों में परिगणित नही है। अर्थ-"अनन्तानुबन्धी" ४ का जघन्य अनुभाग पारिशेष न्याय से प्रथम आवली काल तक उदय व सत्कर्म किसके होता है ? यह सूत्र सुगम है। प्रथमसमयउदीरणा दोनो नहीं बनते है । वर्ती संयुक्त के होता है। (C) आवली काल तक ऐसे मिथ्यात्वी के अनन्तानु शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रियो मे जघन्य अनुभाग सत्त्व का बन्धी का बन्ध मिथ्यात्व-निमित्तक [मिथ्यात्व-हेतुक] ही र __ स्वामिपना क्यों नही दिया ? होता है। प्रपञ्चतः ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यात्व, समाधान नही, क्योकि प्रथम समय मे अनन्तानुबधी कपाय व योग [कषाय मे अविरति व प्रमाद गभित है। से सयुक्त हुए जीव के जो नवीन अनुभाग बन्ध होता है हेतुक बन्ध उस आवली काल मे होता है। जबकि सासा- उसे देखते हुए सूक्ष्म निगोद जीव का जघन्य अनुभागसत्त्व दन गुणस्थान मे ६ आवली काल तक अनन्तानुबन्धी अनन्तपुणा है।" उदित रह कर भी वहाँ एक समय के लिए भी वह नोट-अत्यन्त स्पष्ट है कि यहा उदय का प्रकरण मिथ्यात्व को नही बांध सकती। नही है, मात्र सत्त्व का प्रकरण है। फिर उसे उदय मे सारतः जहा मिथ्यात्व रूप आधार है वहा अनन्तानु घटाना कहां का न्याय है ? बन्धी का बंध निश्चित होता है। पर जहां (सासादन) में . ["यहा सत्व का प्रकरण है।" देखे जयधवल पु० ५ अनन्तानबन्धी है वहा पर मिथ्यात्व के बन्धका निम के पृ. १६३ व १६७-६८ के विशेषार्थ] । नही बनाया जा सकता। (iii) तीसरी मुख्य व ध्यातव्य बात यह है कि यदि __ यदि इतनी सब कथनी भी ध्यान मे नही रख कर अनुभाग की जघन्य उदयरूप अवस्था को यदि अनुदय पुनरपि तर्क किया जाय कि अनन्तानुबन्धी विसंयोजित माना एवं कहा जाता तो :-"ससार मे मिथ्यात्व का करने वाले के मिथ्यात्व में आने पर अनन्तानवन्धी का जघन्य अनुभाग सत्त्व (सत्कर्म) सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त के उदय, यानी उसका अनुभाग-उदय सबसे जघन्य होता है। ही होता है।" -ऐसा कहा गया है।' अतएव उसे अनुदय तुल्य होने से 'अनुदय' कहा जाता है। दर्शनमोह की क्षपणा के लिए उद्यत वेदकसम्यक्त्वी तो इसका उत्तर यह है कि : के योग्य काल मे जो तत्प्रायोग्य अल्पतम अनुभाग होता (i) प्रथम तो आगम मे उक्त प्रथम आवलिकालवर्ती है, उसे भी आगम में जघन्यता नही बताई । अपितु सूक्ष्ममिध्यात्वी के अनन्तानुबन्धी के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व निगोद अपर्याप्त के ही मिथ्यात्व का सर्वजघन्य अनुभाग

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