Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 115
________________ हिन्दी के विकास में जैन कवियों का योगदान सबसे लोकप्रिय रचना मानी जाती है जिसकी सैकड़ों की वह सागवाड़ा (राजस्थान) की रहने वाली थी। उसके संख्या में पाण्डुलिपिया उपलब्ध होती हैं बनारसीदास द्वारा निबद्ध आध्यात्मिक छन्द, षट् पद, भक्ति परक पद, १७वीं शताब्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय एव सशक्त कवि हिन्दी की अच्छी रचनाये है। इसी समय आगरा में परिमाने जाते है। उनका समयसार नाटक, बनारसी विलास मल्ल कवि हुए जिन्होने श्रीपाल चरित के रूप मे हिन्दी एवं अर्धकथानक हिन्दी की बेजोड़ रचनायें है। समयसार की एक सशक्त रचना भेंट की। नाटक मे जीव. अजीव, आस्रव, बंध, सबर, निर्जरा और १८वी शताब्दि मे होने वाले अनेक कवियो मे मुनि मोक्ष सात तत्त्व अभिनय करते है। इनमे जीव नायक है सभाचंद हेमराज, बुनाकोदास, बनारसीचन्द, भुधरदास, तथा अजीव प्रतिनायक है। आत्मा ने स्वभाव और विभाव द्यानतराय हिन्दी जगत के जगमगात नक्षत्र है। भाचन्द को नाटक के ढग पर बतलाने के कारण इसको नाटक के हिन्दी पद्मपुराण की लेखक को अभी ३ वर्ष पूर्व ही समयमार कहा गया है। वनारसीविलास में कवि की ५० खाज करने में सफलता मिली है। प्रस्तुत पुराण हिन्दी भाषा रचनाओ का संग्रह किया गया है। आगरा के दीवान का प्रथम पद्मपुराण है जो साढ़े छः हजार से अधिः पद्यो जगजीवन ने कवि की बिम्बरी रचनाओ का उनकी मृत्यु में निर्मित जैन राम काव्य है । भाषा सरल किन्तु लालित्य के पश्चात् सवत १७०१ चैत्र सूदी २ को एक ही स्थल पूर्ण है। हमराज नाम के चार कवि एक ही समय में हा पर सकलन कर दिया था और उसी सकलन का नाम जिनमे पाडे हमराज, हेमराज गोदिका ये दोनों सबसे बनारसी विलास रखा गया था। अधं कथानक हिन्दी प्रसिद्ध थे। कविवर बुलाकोदास, बुकीचन्द दांनी आमरा जगत का प्रथम आत्म चरित है जिसमे कवि ने अपने निवासी थे। बुलाकीदास का पाण्डवपुराण हिन्दी की एक जीवन के ५५ वर्षों की जीवन घटनाओ का बड़े ही सुन्दर सशक्त कृति है, जिसका रचना काल सबन १७५४ है। ढग से छन्दोबद्ध किया है। इसमे काव की सत्यप्रियता, इसी तरह बुलाखीचन्द का व पनकोष अपने ढग की एक स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभिकता का जबर- अनूठी कृति है। दस्त पुट विद्यमान है। कथानक की भाषा अत्यधिक १९वी शताब्दि में पद्य के स्थान पर गद्य लेखक सरल है। अधिक सख्या में हुए । तथा आगरा का स्थान जयपुर ने कविवर रूपचन्द बना रसीदास के ममकालीन थे। ले लिया। मांगानेर, बामेर एव जयपुर जैन नखको के दोनो ही आध्यात्मी थे तथा परस्पर में आध्यात्म चर्चा केन्द्र बन गये। हिन्दी गद्य लेखको मे १० दीपचन्द किया करते थे। उनका दोहा शतक, गीत परमार्थी कामलीवाल, प० दोलनराम कासलीवाल, पटारमन, अध्यात.. से ओतप्रोत है । दृष्टान्तो के द्वारा उन्होंने अध्या- १० जयचन्द छाबडा, ऋषभदास निगोत्या, कशरा मिह त्म तत्त्व को बहुत अच्छी तरह समझाया है । भट्टारक आदि के नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। य सना ढढारी रत्नकीति एव कुमुदचन्द्र दोनो ही गुरू शिष्य थे दोनो ही भाषा के विद्वान थे और इनकी रचनाओ न उस समय भट्टारक थे तथा अपने समय के प्रभावक भट्टारक थे। जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त की थी। रत्नकोति की अब तक ४४ कृतिया उपलब्ध हो चुकी है वर्तमान शताब्दि म शताधिक जन विद्वान एवं सन्त जिनमें अधिकाश रचनाये नेमि राजल से सम्बन्धित है। हिन्दी लेखन मे लगे हुए है तथा उपन्यास, कथा, कहानी उन्होने अपने गीतों में राजुल के मनोगत भावो का एव काव्य रचना के साथ साथ ग्रन्यो का समालोचनात्मक व उसके विरही जीवन का सजीव चित्र उपस्थित किया है। अध्ययन प्रस्तुत कर रहे है। हिन्दी पत्र-पत्रिकायोक इसी तरह कुमुदचन्द्र की अब तक २८ रचनाये उपलब्ध हुो माध्यम से हिन्दी प्रचार प्रभार मे महायक बन हुए है। चुकी है जिनमे गीत सज्ञक रचनाये अधिक है। जैन सन्तो में आचार्य तुलसी, प्राचार्य विद्यानन्द, आचार्य १७वी शताब्दि को महिला कवयित्री बाई अजीत- विद्यासागर, नथमलजी, मुनि नगराज आदि के म मति" की खोज अभी कुछ ही समय पूर्व हो सकी है। (शेष पृ० १२ पर)

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