Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 111
________________ संघे शक्ति कलीयुगे अपना ही दल, गुट या वर्ग विशेष सर्वोपरि होता चला मौर्यकाल के प्रायः अन्त से (लगभग २००ई० पू०) पर्यन्त गया। इस विघटनकारी अभिशाप ने धार्मिक, सामाजिक चलती रही। स्वय वैदिक परम्परा मे औपनिषादिक एव राष्ट्रीय संगठन की कमर तोड दी है और उसके टुकड़े- आत्म-विद्या के प्रनारक तथा नवोदित शिवोपासक भी टुकड़े करके धर्म-सस्कृति, समाज एव राष्ट्र के शरीर को याज्ञिक हिंसा, वैदिक कर्मकाण्ड और वर्णादिक के आधार जर्जर कर दिया है। क्या साधु-सत एवं धर्माचार्य, क्या । पर सामाजिक भेद-भाव के विरोधी धी, अत: उनमे भी चितक, विचारक एव साहित्यकार, का सामाजिक नेता वर्णनास्था श्रमणों जैसे पीमित रूप में ही अगीकृत रही। एवं राजनेता, सब ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस विध- किन्तु मौर्योत्तर काल मे, एक और तो उत्तर भारत की टनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते दीख पड़ते है। नैतिकता केन्द्रीग। (मगध-मालवा) राज्यसत्ता ब्राह्मणकलोत्पन्न प्रधान मानवीय मूल्यों में अनास्था का ही यह दुष्परिणाम शुग व कण्व नरेशो के हाथ में आ गई, जिन्होंने जोरहै-अब तो आस्था में ही किसी की आस्था नही है शोर में ब्राह्मणधर्म पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया और श्रमणो गई है। पर भरमक अत्याचार किये। परिणामस्वरूप बौद्ध समुतीर्थकर-युग, चौथे काल या पुराण काल की बात दाय की ता अपार क्षति हुई ही, जैन सघ भी उत्तर भारत छोड भी दे, तो गत माधिक अढाई सहस्र वर्षों के शुद्ध मे पर्याप्त निर्बल हा गया--भद्रबाबु श्रुतके वली की पर।रा इतिहास काल में भी भारतवर्ष मे ऐसे अनेक अत्यधिक के मुनि तो ४थी शती ई० पू० के मध्य लगभग ही बहत काल-क्षेत्र व्यापी स्वणिम युग आए है, जब लोकमानस ने बडी मख्या में दक्षिण के कर्णाटक आदि देशो की ओर मानवीय मूल्यो में सुदृढ आस्थापूर्वक स्वय को ऐगी विघ- बिहार कर गये थे, लिभद्र की परम्परा के अवशिष्ट टनकारी प्रवृत्तियो से बचाय रखा, और भेद में अभेद या साधु भी मालवा तथा वहां में भी गुजरात-सौराष्ट्र की अनेकता में एकता की मुष्ठ साधना करके सर्वतोमुखी ओर चले गए। दूसरी ओर, ईरानी, यूनानी पल्प, शक, उत्कर्ष सादित किया है तथा सम्यक पुरुषार्ष द्वारा ऐहिक मुरुण्ड, पाण आदि विदेशी जातियां उत्तरी सीमान्तों की एव पारमार्थिक स्वपर कल्याण का साधन किया है। परत ओर से प्रविष्ट होकर इस देश मे यत्र-तत्र बसने और भेद में अभेद या अनेकता में एकता की इस भावना के अपना राज्य मत्ताय स्थापित करने लगा था। हूण, अरब, पनपने मे आज सबसे बडा बाधक कारण वर्तमान में प्रच- तुक, मगोरी आदि के रूप में यह सिलसिन! यो शती लित जातिवाद एव जाति-उपजाति प्रथा है। तारीफ यह तक चलना र । बीच में गुप्त युग लगभग (३२०-५५० कि इस जाति प्रथा के वर्तमान रूप को अनादि-निधन ई०) मे भारतीय राज्यसत्ता प्रबल भी हो उठी, तो वह घोषित किया जाता है। और सज्जातित्व के आवरण में भागवत धर्मानुयायी रही ! पुराणग्रन्थ, स्मृति शास्त्र आदि सजातीत्व का नारा बुलन्द किया जाता है। रचे गय और जनता ब्राह्मणवाद, वर्णाथम, जातिपांति के बधनो में जकड़ती चली गयी । गुत्तर का1, विशेषकर श्रमण परम्परा के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर राजपूत युग में, यह प्रक्रिया आर अधिक बलवना होती (छठी शती ई० पू०) के उदय के बहुत पूर्व भारत मे नवो- गयी और मध्य-युगीन मूस्लिम शासन काल मतो य बधन दित वैदिक-ब्राह्मण परम्परा ने कार्य विभाजन की सुविधा अपनी चरमावस्था को पहुच गए। की दृष्टि से समाज मे चतुर्वर्ण व्यवस्था प्रचलित कर दी थी, किन्तु वह कर्मत: एव परिवर्तनीय रही जन्मत: और परन्तु, दक्षिण भारत के अधिकाश भाग में क्योकि अपरिवर्तनीय नही । श्रमण परम्परा ने भी उसे उसी दृष्टि मूलसंधी निर्ग्रन्थ जैन धर्म का ही मुख्यतया वर्चस्व एवं से और उसी रूप में स्वीकार कर लिया, यद्यपि वह श्रमण प्राधान्य रहा, वहाँ का सामाजिक मगठन लगभग १५०० निर्ग्रन्थ सस्कृति की अभेदपरक आत्मा के पूर्णतया अनुकूल वर्ष पर्यन्त प्रायः वैसा ही रहता रहा जैमा कि मौर्यकाल नही थी। यह व्यवस्था उसी रूप में भारतीय समाज मे तक उत्तर भारत मे रहा था, अर्थात् चतुर्वर्ण तो शनैः शनैः

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