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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-
निर्वाण सवत् २५१५, वि० स० २०४५
वर्ष ४१ किरण ४
अक्टूबर-दिसम्बर । १९८८
परमात्मा-स्तवन चिदानंदैक सद्भावं परमात्मानमव्ययम् । प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम् ॥१॥ खादिपंचकनिमुक्तं कर्माष्टक बिजितम् । चिदात्मकं परं ज्योतिर्वन्दे देवेन्द्र पूजितम् ॥२॥ यदव्यक्तमबोधानां व्यक्तं सद्बोधचक्षुषाम् । सारं यत्सर्ववस्तूनां नमस्तस्मै चिदात्मने ॥३॥
-मुनि श्री पद्मनंद्याचार्य अर्थ-जिस परमात्मा के चेतनस्वरूप अनुपम आनन्द का सद्भाव है तथा जो अविनश्वर एवं शांत है उसके लिए मै (पद्मनन्दी मुनि) अपने समस्त कर्मो को शांत करने के लिए सदा नमस्कार करता हूं॥१॥ जो आकाश आदि पाच (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) द्रव्यो से अर्थात् शरीर से तथा ज्ञानावरणादि आठ कर्मो से भी रहित हो चुकी है और देवों के इन्द्रों से पूजित है ऐसी उस चैतन्यरूप उत्कृष्ट ज्योति को मैं नमस्कार करता है। जो चेतन आत्मा अज्ञानी प्राणियों के लिए अस्पष्ट तथा सम्यग्ज्ञानियों के लिए स्पष्ट है और समस्त वस्तुओं में श्रेष्ठ है उस चेतन आत्मा के लिए नमस्कार हो।
भावार्थ- उक्त पद्यों में आचार्य ने शुद्ध चैतन्य परमात्मा को नमस्कार किया है, जो ज्ञान शरीरी है, द्रव्य कर्म, नोकर्म और भावकर्म आदि से रहित है। अविनश्वर अनिर्वचनीय आनंद से युक्त है कर्मो से रहित, इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य है । वह उत्कृष्ट ज्योतिरूप परमात्मा सदा वन्दनीय है।