Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 108
________________ आप सादर आमन्त्रित हैं! हमारे सम्पादक होने के नाते लोग अक्सर हममे पूछ बैठते है--'अनेकान्न' के ग्राहक किननी सख्या मे है, इमका वितरण कितना है और कैसे चल रहा है ? कभी-कभी सन्देश भी मिल जाते है कि अनेकान्त वास्तव में सत्य तथा जैन धर्म के रूप का प्रतिबिम्ब है; आदि । हम लिख दें कि हम ग्राहक संख्या का माप मनोयोग पूर्वक पढ़ने वालो से करते है; पैसा बटोरने के लिए ग्राहक संख्या बढ़ाने से नही। हम बता दे कि हम प्रशमा से डरते है। हाँ, आशीर्वाद और सदभावनाये ग्रहण करना हमाग धर्म अवश्य है। हमारी धारणा है कि प्राय: ऐसे प्रश्न आर्थिक दृष्टि को ही लेकर किये जाते है । जिनकी भाथिक दष्टि हो वे ही करते है-वे हानि लाभ का हिसाब भी पैसे से आँकते है। पर, हमे विश्वास है कि ऐसे कोई व्यक्ति, पत्रिका गा सस्था घाटे मे नही होते जिनके उद्देश्यो की पूर्ति में कार्य कर्ताओ का सक्रिय बल मिलता हो। मो-धर्म के प्रभाव से प्रबुद्ध-हमसफर कार्यकर्ताओ, लेखको और पाठकों के सहयोग से 'अनेकान्त' आगग रक्षा व सही आचार-विचार निर्देश देने मे सफल चल रहा है। लोग दिशा-निर्देश पा रहे है-वे इसे मिल बैठकर और एक दूसरे से मांगकर भी चाव से पढते है। ऐसे मे लाभ ही लाभ है। हां, जहाँ स्थिति ऐसी हो कि धर्म-संस्था और उसके कार्यकलापों को आर्थिक व्यापार बना लिया जाता हो, आचार्यों की रचनाओ की छपाई पर गहरे कमीशनो की मांग हो, पराई धार्मिक कृतियो को फ्री वितरण या लागत मूल्य में बेचने के बजाय महगे मूल्यो मे बेचा जाता हो, जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा आदि मे बोलिया बोलकर प्रभूत द्रव्य-सच का उपक्रम हो वहाँ 'घाटा न हो मुनाफा हो' जैसे प्रश्न उभरते है । यहाँ तो सस्था की कमेटी ने इस महर्घता में भी अनेका-त का वार्षिक शुल्क अाज भी वही छह रुपया रखा है जो इकतालिस वर्ष पर्व था--- जबकि सभी पत्र-पत्रिकायें मूल्य बढ़ा चुकी है। शास्त्रो मे पैसे को परिग्रह कहा है । यदि मान आ जाय तो पैसा मनमानी कराता है । वद विद्वानो और त्यागियो तक को अपने गीत गवाने को मजबूर करता है-जैसा हो रहा है। धर्म को तो अपनी मर्यादा है. यह मर्यादा में रहेगा। जब कि मर्यादा में रहना पैसे के वश की बात नहीं। मर्यादा मे तो निद्वन्द-विद्वान, नियमबद्ध श्रावक, छोटे-बड़े त्यागी और सच्चे महाव्रती ही रहन में समर्थ है और उन्हें आवश्यकतापूति में उपकरणों की कमी नही रहती। हाँ, ये तो अज्ञानी लोगो की तृष्णा ही है-प्रभूत द्रव्य समेटने और उसे गाजे-बाजे, वहत पण्डाल व मच. निर्माण और दिग्वावटी सम्मेलन व अटपटे-सेमीनारो आदि मे बहाकर वाहवाही लटने की । जब कि धर्म आगम२क्षा और आचार-विचार सुधार पर बल देता है और 'अनेकान्त' कई मौको पर ऐसे पोषणो मे सफल रहता रहा है . और लेखको से भी तथ्यपूर्ण लेख मिलते रहे है । हम सब के अतीव आभारी हैं। जब कभी हम सद्भावना में अधिक खरा लिख जाते है और खरी बात बुरी लग जाती होगी। सो पाठक हमारी सदभावना का ख्याल कर हमे क्षमा करे। यह अक वर्षान्त का है। आगामी वर्ष के लिए आप मादर आमत्रित हैं.-पठन-पाठन मे सहयोग के लिए। धन्यवाद ! -सम्पादक

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