Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 112
________________ ४, वर्ष ४१, कि० ४ अनेकान्त स्वीकृत हो गए, किन्तु कर्मतः तथा परिवर्तनीय बने रहे। ब्राह्मण परम्परा के बड़े-बड़े दिग्गज आचार्य भले ही हुप, समाज की एकसूत्रता एवं स्वस्थता भग नही हुई। १२वी देश का राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एव नैतिक पतन शती मे रामानुजाचार्य के वैष्णव सम्प्रदाय के, तदनन्तर और सैकड़ो वर्षों की विदेशी-विधर्मी मुसलमानो, फिरंगियों वीरशैव (लिंगायत) मत के द्रुतवेग से बढ़ते प्रचार-प्रमार, आदि की गुलामी का कारण मुख्यतया वह संकीर्ण असजैन राज्य सत्ताओ तथा बहुभाग जिनधर्मी ब्राह्मण-क्षत्रिय, हिष्णु ब्राह्मणवाद ही रहा जिसकी जड मे जाति-उपजाति वैश्यों के शन: शनैः मत परिवर्तन, मुसलमानों के प्रवेश वाद का भेद या कूटपरक भूत ही सर्वाधिक सक्रिय रहा । आदि अनेक कारणों से वह सामाजिक संगठन परमरा आज भी स्वतन्त्र सर्वतन्त्र भारतीय राष्ट्र की भावनात्मक गया और ब्राह्मणवाद जनमानस पर बेतरह छाता चला एकसूत्रता मे वही जातिवाद सबसे बड़ी बाधा है। राजगया । अतएव दक्षिण मे भी उत्तर भारत जैगी जातियाँ- नैतिक सम्प्रदायवाद या सियामी फिरकापरस्ती का रूप उपजातियाँ उत्पन्न होने लगी। साथ ही अवशिष्ट उच्च- लेकर तधा साथ मे आतंकवाद का हथियार अपनाकर तो वर्गीय जैनों को वर्णवाह्य घोषित करके उन्हे 'पचम" विघटनकारी तत्त्व भयकर एव विध्वंसक हो उठे है, अपने सज्ञा दे दी गई- अर्थात् वे चतुर्थी (शूद्रों) मे भी हीन छोटे से स्तर पर जैन समाज भी उसी रोग से ग्रस्त होता समझे जाने लगे। "चतुर्थ" जो पहले से ही अपेक्षाकृत जा रहा है। देश की जनसंख्या का मात्र एक प्रतिशत पिछड़ा हुआ एवं निम्न वर्ग था और जिसमे कृषक, श्रमिक, होते हुए भी वह इतने सम्प्रदायो-उपसम्प्रदायो, पन्थोविभिन्न कर्मकर समूह थे, उसके शेत पाल, कासार, बोगार उपपन्थो, गुरुडमो मे तथा इतनी जातियो-उपजातियो, आदि का वहुभाग पीछे तक जैन बना रहा । ये तथाकथित अवान्तर-जातियो, अल्लो-थोको आदि मे बंटता हुआ छोटे लोग सदैव से अधिक धर्मप्राण रहते पाए है, एका- टुकड़े-टुकड़े होकर रह गया है । अत. ऐसा तत्त्वहीन होता एकी किसी जोर-जबरदस्ती या प्रलोभन के कारण वे जाता है कि उसके स्वय के तथा उसके धर्म एव सस्कृति स्वधर्म परिवर्तन प्रायः नही करते । अतएव इधर गत दो- के अस्तित्व को ही भयानक खतरा उत्पन्न हो गया है। तीन सौ वर्षों मे दक्षिण भारत मे जो जैन बच रहे वे आवश्यकता है कि प्रबुद्ध समाज नेता समय की गति को चतुर्थ और पचम ही कहलाने लगे। देखादेखी उनमे भी पहिचाने और विघटनकारी प्रकृतियो से समाज की जीवन कई जातियाँ-उपजातियाँ विकसित हो गयी। किन्तु यद्यपि रक्षा करें। स्मरण रहे कि "सघे शक्ति कलीयुगे" इस हीन भावना, निर्धनता, अशिक्षा आदि के कारण वे विषम कलिकाल में शक्ति का मूल सगठन ही है। शायद धार्मिक एव सास्कृतिक पुनर्जागरण क ने योग्य नही रहे, इसीलिए भविष्य दृष्टा भगवान महावीर ने श्रीसंघ अर्थात तथापि उस भभाग मे जैनधर्म एव सस्कृति के सरक्षक मुनि आयिका, श्रावक-श्राविका, रूपी चतुर्विध संघ की तथा प्रतिनिधि वे ही बने रहे और आज भी बने है। स्थापना, सगठन, व्यवस्था एव सरक्षण को प्राथमिकता वर्तमान शती के दिगम्बर जैन मुनियो, आयिकाओं आदि दी थी। उन सर्वहितकर जगद्गुरू भगवान की जन्ममे से भी अधिकाश उन्ही जातियो मे उत्पन्न हुए है। मध्य जयन्ती, तप या ज्ञाकल्याणक, शासन जयन्ती या निर्वाणोएव मध्यान्तर कालो मे दक्षिण भारत मे जो अनेक सुधा- त्सव, किसी भी उपलक्ष्य से हम उनका गुणगान करें। रक एव निर्गुणी या भक्त संत हुए वे पी अधिकतर इन्ही हमे उनकी इस अमूल्य देन को विस्मत नही करना चाहिए वर्गों में उत्पन्न हए थे। दूसरे, इन चतुर्थ एवं पचमों मे, और उनके श्रीसंघ को विकृतियो से बचाये रख कर जो जैन बने रहे और जिनमे कितने ही मूलतः ब्राह्मण, सरक्षित एवं सतेज बनाये रखने का सकल्प सदैव दोहराते क्षत्रिय या वैश्य कुलोत्पन्न भी हैं, परस्पर रोटी-बेटी रहना चाहिए-इसमे हम सबका कल्याण निहित है। व्यवहार भी चलता रहा । दक्षिण भारत मे उस काल में (श्री रमाकान्त जैन के सौजन्य से)

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