Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 103
________________ मूल-अगम की रक्षा करें जैन आगमों की मूल गाथाओं में शुद्धिकरण के नाम पर जो मनमाने बदलाव किए जा रहे हैं। इस विषय को लेकर वीर सेवा मन्दिर को कार्यकारिणी ने निश्चय किया है कि जैन आगमों को मूल गाथाओं के बदलाव को रोकने के लिए समाज में जागृति लाई जाए। कुन्द कुन्द भारती, नई दिल्ली से प्रकाशित समयसार, नियमसार और रयणसार ग्रन्थों के सम्पादक/प्रकाशक ने शुद्धिकरण के नाम पर-व्याकरण के बंडन से मुक्त प्राचीन और व्यापक हमारे आचायों को आर्ष भाषा को परवर्ती व्याकरण में बांधकर भाषा को संकुचित तो किया ही है, शद्ध शब्द रूपों को भी शुद्ध करने का उपक्रम किया गया है। जैसे- पुग्गल का पोंग्गल, लोए का लोगे, होई का होदि, हवइ का हवदि आदि-यदि होइ और लोए जैसे शब्द रूपों को गलत मान लिया गया तो भविष्य में मंत्र महात्म्य और मलमन्त्र णमोकार भी बदल जाएगे.-"हवदि मंगलं और लोगे सव्यसरणं हो जाएंगे। वीर सेवा मन्दिर चाहता है कि संपादनों में किसी एक प्रति को आदर्श मानकर तदनरूप पूरा ग्रन्थ छपाया जाय और अन्य उपलब्ध या स्वेच्छित विकल्पों को टिप्पणों में आवश्यक रूप में दिया जाए जैसी कि संपादन की प्राचीन परिपाटी है और विद्वन्मंडल- सम्मत है। उक्त प्रसंग को लेकर वोर सेवा मंदिर की ओर से त्यागियों एवं विद्वानों के अभिमत आमत्रित किए गए थे। प्राप्त अभिमत समाज की जानकारी हेतु नीचे दिए जा रहे है। --..."मूल जन प्राकृत ग्रन्थों को बदलना कथम प उचित नहीं है।' -१०८ पूज्य आचार्य शिरोमणि श्री अजित सागर जी महाराज .. मूल मे सुधार भूलकर नही करना चाहिए अन्यथा सुधरते-२ पूरा हो नष्ट हो जाएगा।'... -१०५ आर्यिका विशुद्ध मति जी -."यदि कदाचित् कोई पाठ बिल्कुल ही अशुद्ध प्रतीत होता है तो भी उसे जहां की तहाँ न सुधार कर कोस्टक में शुद्ध प्रतीत होने वाला पाठ रख देना चाहिए।... ""आजकल जो मूलग्रंथों में संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन की बुरी परपरा चल पड़ी है उसको मुझे भी चिन्ता है।" -१०५ आयिका श्री ज्ञानमती माता जी -ग्रन्थों के सम्पादन और अनुवाद का मुझे विशाल अनुभव है। नियम यह है कि जिस प्रथ का सम्पादन किया जाता है उसकी जितनी सम्भव हो उतनी प्राचीन प्रतियां प्राप्त की जाती है। उनमें से अध्ययन करके एक प्रति को आदर्श प्रति बनाया जाता है। दूसरी प्रतियों मे यदि कोई पाठ भेद मिलते है तो उन्हें पाद टिप्पण में दिया जाता है।" -पं० फूलचन्द जो सिद्धान्त शास्त्री -पूर्वाचार्यों के वचनों में, शब्दो में सुधार करने पर परम्परा के बिगड़ने का अन्देशा है। कोई भी सधार यदि व्याकरण से भिन्न प्रतियों के आधार पर करना उचित मानें तो उसे टिप्पण मे सकारण उल्लेख ही करना चाहिए न कि मूल के स्थान पर ।... -पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री -संशोधन करने का निर्णय प्रतियों के पाठ मिलान पर नियमित होना चाहिए न कि सम्पादक की स्वेच्छा पर।.. -पं० बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री

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