________________
१२, वर्ष ४१, कि. ३
अनेकान्त
हमारा कहना तो यही है कि श्रावकों द्वारा जयकारे, 'अस्सलामानेक प्ररहंता' या 'गुडमोनिग टू प्ररहताज भी चित्र प्रकाशन, वितरण और स्वार्थ-पूरक आशीर्वाद प्राप्ति बोल सकेगा-वह भी मूलमंत्र हो जायेगा। क्या कोई की प्रथाएं समाप्त की जाएं-तभी धर्म स्थिर रह सकता ऐसा स्वीकार करेगा-जपेगा या लिखकर मदिरों में है। अखबारों, कैसिटों आदि के माध्यम से उनके प्रवचनो टांगेगा या इन्हें मलबीज मंत्र मानकर ताम्र यन्त्रादि में के प्रचार को भी रोका जाय । क्या ? जिनवाणी वाक्य, अंकित करायेगा ? कि ये पद णमोकार मूलमंत्र का है। धर्म-प्रचार के लिए कम है जो काक्ति को बढ़ावा दे पूर्वा- क्योंकि इनके अर्थ मे कहीं भेद नही है। चार्यों और जिनवाणी को पीछे धकेला जाय । जरा सोचिए । हमारी दृष्टि से धर्मान्ध नो सही मार्ग पर ना ही
पर, हमने जो दिशा-निर्देश दिया है वह अर्थभेद को आ सकेगे। यदि आप उन्हे मना के तो धर्म का सौभाग्य
लेकर नही दिया-भाषा की व्यापकता कायम रखने और
अन्य की रचना मे हस्तक्षेप न करने देने के भाव में दिया ही होगा और आपको भी धर्मलाभ !
है। ताकि भविष्य में कोई किसी रचना को बदलने जैसी
अनधिकार चेष्टा न कर सके । क्योकि यह तो सरासर पर२ क्या मूलमंत्र बदल सकेगा ?
वस्तु को स्व के कब्जे मे करके उसके रूप को बदल देने हमने मल आगम-भाषा के शब्दों मे उलट-फर न जमा है ताकि दावेदार उसकी शिनाख्न ही न कर सके करने की बात उठाई तो प्रबुद्ध वर्ग ने स्वागत कर और वह सबूत देने से भी महरूम हो जाय । समर्थन दिया-मम्मनियाँ भी आयी । बापजूद इसके हमारे कानो तक यह शब्द भी आप कि-शब्दरूप बदनने हाँ, यदि कद वित् कोई व्यक्ति किसी की रचना में से अर्थ में तो कोई अन्ना नही पड़ा । उदाहरण के लिए अगुद्ध या अशुद्ध कामिलाप मानता हो तो सर्वोत्तम 'लोए' या 'होई' के जो अर्थ है वे ही अर्थ 'लोगे' या 'होदि' औचित्य यी है कि वह लोक-प्रचलित रीतिवत्-किसी के हैं और आप स्वयं ही मानते है कि अर्थ-भेद नही है- एक प्रात को आदर्श मानकर पूरा-पूरा छपाए और अन्य
र प्रतियों के पाठ टिषण मे दे। जैसा कि विद्वानों का मत नमक, लवण, सेन्धव भी तो एकार्थवानी है-कुछ भी कहो । सभी से कार्य सिद्धि है।
है। दूमग तरीका है-वह पूर्व प्रकाशनो को मलिन न
कर स्वय उम भाषा मे अपनी कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ-रचना बात सुनकर हमें ऐसी बचकानी दलील पर हंपी जैसी .
करे । का ठीक है ? जरा सोचिए ? आ गई। हमने सोवा-यदि अर्थ न बदलने से ही सब ठीक रहता है तब तो कोई णमो अरईनाणं' मत्र को
-सम्पादक
(पृ० २१ का शेषांश) यदि मिध्यात्य को अफिचिकर कहेगे तो उसके पहले करेंगे वैसे ही हमारे विवार वनेगे । अत: मिथ्यात्व ससार योग को अकिंचित्कर कहना पडेगा, कोकि केवन योग ही का निमित्त कारण बन जाता है, क्योकि इसके बाद कषायें ३ संसार नहीं होता; यदि कषाये न हो।
जन्म लेती है। हमार। पूज्य वही है जो मोक्षमार्ग का नेता ३ कुगुरु, कुदेव आदि की पूजा को जो मिथ्यात्व कहा सर्वज्ञ और कर्मपर्वतो का भेत्ता है, वह जो भी हो। विचार । जाता है उसके पीछे यही कारण है कि कुगुरु, कुदेव आदि करने पर जिनेन्द्र ही ऐसे देव हैं, अतः उनकी आराधना १ ने हिंसादि मे धर्म माना है। जो अहिंसादि में धर्म मानता से सम्यक्त्व को प्राप्ति होती है और कषायादि पर बिजय,
है वह कगुरु कदेव नही है जिसको हम पूजा एव सत्सगति अत: मिथ्यात्व को अफिचित्कर कहना हमारी भूल होगी।