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प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय व्यवहार का समन्वय
(६) द्वावशानुप्रेक्षा
इसका प्रारम्भ सिद्धों और चोबीस तीर्थ के नमस्कार से होता है ।' अन्तिम से पूर्ववर्ती दो गाथाओं (८९ १०) में अनुप्रेक्षाओ का माहात्म्य बतलाकर उनके चिन्तन से मोक्ष गये पुरुषों को बारम्बार नमस्कार किया गया है। अन्तिम गाथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के मर्मज्ञ किसी अन्य विद्वान् के द्वारा जोडी गई जान पड़ती है क्योंकि वहाज भणिय कुन्दकुन्दमुनिणा" वाक्य का प्रयोग किया गया है जबकि पंचास्तिकाय को अन्तिम गाथा में "मया भगिय" का प्रयोग किया गया है।" द्वादशानु की पूरी अन्तिम गाथा इस प्रकार है -
इदि णिच्छयववहार ज भणियं कुन्दकुन्दमृणिणा हे । जो भावइ सुद्धमग सो पावई परमणिव्वाण ॥६॥
इस गाथा मे ग्रन्थकार के निश्चय व्यवहार के समन्वय को स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। "मणो" शब्द से यहा एकान्त आग्रह रहित वीतराग हृदय का संकेत किया गया है ।
(७) भक्ति संग्रह
यह पूर्णत: भक्तिग्रन्थ होने से श्रादि से अन्त तक व्यव हारनयाश्रित है । जैसे- "तिन्धयरा में पीवन्तु,' आरोदाहि न मे बांधि सिद्धासिद्धि मम दिसतु', दुक्खखयं दितु' मगनमत्थु मे पिच्च, निव्वाणरस ខ្ចី लद्धो तुम्ह पसाएण', एयाण णमुक्कारा भव भवे मम सुहदितु इत्यादि ।"
ये कथन अपेक्षाभेद से सिद्धान्तविपरीत नहीं है। वाहा रूप से देखने पर लगता है कि पूर्ण शुद्ध निश्चयनय का प्रतिपादन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ईश्वर कर्तृत्ववाचक व्यवहारपरक वाक्योंका प्रयोग कैसे कर सकते है परंतु निश्वय और व्यवहार के समन्वय के आचार्य के ये प्रयोग अनुपात नहीं है क्योकि तटस्थ निमित्तकारणो को भक्ति यहां सक्रियनिमित्त कारणों के हर में कहा गया है जो 'स्यात्' पद के प्रयोग से असंगत नही है ।
इस प्रकार ग्रन्थकार के सभी ग्रन्थो के आलोकन से सिद्ध होता है कि उन्हें उभयनयो का समन्वय है । अभीष्ट है जो जनमत के अनुकूल है। इसीलिए वे शुद्ध निश्वयन से विद्धादि के प्रति व्यावहारिक भक्तिभाव का निषेध
करते हुए भी प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में, कही-कही मध्य और अन्त मे भी सिद्धादि के प्रति नमस्कार रूप भक्ति को प्रदर्शित करते हैं । भक्ति संग्रह पुर्णतः भक्ति का पिटारा है। इसी प्रकार मात्र बाह्यलिंग का निषेध करके भी उसका न केवल प्रतिपादन ही करते है अपितु स्वयं भी भावलिग के साथ बाह्यलिय को भी धारण करते हैं।
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शुद्ध निश्चय नम से सारी और मुक्त आत्माओं को नियममार में जन्म जरादिरहित, सम्यक्त्वादि आठ गुणों से अलंकृत बद्रिय निर्मन विशुद्ध और सिद्धभावी कहा है । परन्तु क्या अपेक्षाभेद से इतना जानने मात्र से संगारी और मुक्त सर्वथा समान हो जायेंगे। ऐसा होने पर मुक्ति के लिए प्रयत्नादि सब व्यर्थ हो जायेगे । किञ्च वही परद्रव्य को देय और स्व को उपादेय कहा है ।" क्या निश्चयय से हयोपादेय भाव बन सकता है ? कभी नही सम्भव है। यह हेयोपादेय भाव व्यवहारनय से हो सम्भव है । अत ग्रन्थकार के किसी एक कथन को उपाव्य मानना एकान्तवाद का स्वीकार करना है जो स्वादसिद्धान्त से मिथ्या है। जब तक समग्र दृष्टि से चिन्तन नहीं करेंगे तब तक ग्रन्थकार के काल का सही मूल्याकन नही हो सकेगा । ग्रन्थकार ने किन परिस्थितियो में किनके लिए निश्चय न का उपदेश दिया है, यह ध्यान देने योग्य है। उपहार हे उन्होने कभी नही कहा अपितु उसे ही पकड़कर बैठ जाने अथवा उसकी नोट में जीविका चलाने का निषेध किया है ।" आचार्य ने स्वयं समयसार के कर्तृकर्माधिकार के अन्त मे दोनो नयो का समयसार है, किस नयाश्रित नही कहकर सारभूत अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट शब्दो में कहा है। जैसे
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जीवे कम्म बद्ध पुट्ठ चेदि ववहारणयभणिद | सुद्धणयस्सदु जीवे अबद्धपुट्ठे हवई कम्म || १४१ ॥ कम्म बद्धमबद्धं जीवे एव तु जाण णयपक्ख । पातितोपुर्ण भयदि जो सो समयसारो ॥१४२ सम्मद्दसणणाण एद लहदित्ति णवरि ववदेस । सरहदा भणिदां जो सो समयसारो ॥१४४ अर्थात् व्यवहार नय से जीव मे कर्म बद्ध स्पृष्ट है परन्तु निश्चयनय से अवद्ध स्पृष्ट है। "जीव मे कर्म बधे