Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 83
________________ एक नया मिथ्यात्व-'अकिंचित्कर' जिन-शासन में मिथ्यावर्शन को संसार (बंध) का मूल और सम्यग्दर्शन को मुक्ति (निवृत्ति) का मूल कहा है। सम्यग्दर्शन का निश्चयलक्षण स्वात्मानुभूति और मिथ्यादर्शन का लक्षण पर-रूपपने को स्व-रूपपने रूप अनभूति है। कहा भी है-"शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रयोतते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूयत इति । या चानुभूति प्रतीति शुद्धात्मोपलब्धिः सा चैव निश्चयसम्यक्त्वमिति ।"-समयसार १३ (जयसेन टीका)। उक्त प्रात्मानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन नियमतः कर्मनिर्जरा का कर्ता और परानुभूतिरूप मिथ्यावर्शन नियमतः कर्मबन्ध का कर्ता होता है। इसके अतिरिक्त बाह्यरूप में तत्त्वादि का सच्चा श्रद्धान करना या मिथ्या श्रद्धान करना जैसे सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के बाह्य-व्यवहार लक्षणों के माध्यम तो निर्जरा या बन्ध में निमित्त मात्र हैंकर्ता नहीं। यदि कोई व्यक्ति निश्चयलक्षणों को तिरस्कृत कर, निमित्तरूप व्यवहार लक्षणों मात्र के आधार पर यह कहे कि सम्यग्दर्शन या मिथ्यावर्शन का विषय श्रद्धा मात्र है और उनसे निर्जरा या बंध नहीं होता, तो वह लोगों को भरमाने वाला है और निमित्त को कर्ता मानने का दोषी है। जैसा कि "अकिंचित्कर" पुस्तक में किया गया है। इसमें कर्तारूप अनुभूति जैसे लक्षणों को तिरस्कृत कर-व्यवहार लक्षणों (जो निमित्त मात्र होते है) के आधार पर मिथ्यात्व को बन्ध में अकिंचित्कर सिद्ध करने की कोशिश की गई है जो सर्वथा ही मिथ्या है। क्योंकि बंध के सभी साधनों के मूल में अनुभूति ही है और अविरति कषायादि के होने में भी अनुभूति ही मूल कारण है। "मिथ्यात्व बंध का कारण नहीं है" यह चर्चा अखबारों में बरसों से चल रही है इस विषय की "अकिचिकर" पुस्तक हमारी वृष्टि में अभी आई है जो जनता को भरमाने वाली और प्रकारान्तर से निवृत्ति के विरोधी कवेव-कदेवियों के श्रद्धालु बनने का मार्ग-प्रशस्त कराने वाली है। यत:-जब मिथ्यात्व से बन्ध नहीं होता तो इस मिथ्यात्व को क्यों छोड़ा जाय; प्रादि । पुस्तक के विरोध में हमें मनीषियों के लेख मिले हैं। कुछ लेख प्रकाशित कर रहे है । पाठक बिचार और इस नए मिथ्यात्व से बचें। -सम्पादक मिथ्यात्व ही द्रव्यकर्मबन्ध का मूल कारण है श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, हस्तिनापुर मिथ्यात्व को द्रव्यकर्मबन्ध का कारण नहीं कहना कषाय से नही हो सकता। इसीलिए आचार्यों ने मूल सूत्रों द्रव्यकर्मबन्ध की प्रक्रिया को नहीं समझने का फल है। की रचना मे मिथ्यात्व प्रमुख रक्खा है। मिथ्यात्व गुणइस कारण जहाँ भी द्रव्यकर्मबघ कारण कहो या आस्रव स्थान में उत्कृष्ट स्थिति (तीन आयओं के बिना) बन्ध कहो इनका विवेचन किया है वहाँ आचार्य कुन्दकुन्द आदि और अशुभप्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यात्व आचार्यों ने द्रव्य कर्मबन्धके होने में मिथ्यात्व को प्रथम गुणस्थान में ही कहा है, अन्य गुणस्थानों में नहीं। स्थान दिया है। यह सोचना कि मिथ्यात्व अधिकरण तो है, कर्ता नही यह जीव अन्य भोगोपभोग आदि सामग्री में 'मैं' और बिल्कुल वाहियात है। हमने कहीं लिखा है तो विवक्षा से 'मेरापन' कर युक्त होता है तो वह मिथ्यात्व के सद्भाब में ही लिखा है। खुद्दा बन्ध में एकेन्द्रिय जीव बन्धक हैं आदि ही युक्त होता है। मिथ्यात्व का अभाव होने पर संसार सूत्रों में 'जो बन्धा' 'बंधा' आया है उसका अर्थ 'बन्धक' को मर्यादा बन जाती है । इसलिए परवस्तु में एकत्व बुद्धि हीनता किया है, क्योंकि ये दोनों शब्द 'कर्ता' कारक के करने का मूल कारण मिथ्यात्व ही है। वह संसार की जड अर्थ में ही निष्पन्न हुए है । इसलिए बन्ध के कर्ता है ऐसा है। उसके सद्भाव में अविरति और कषाय आदि अपना वहाँ समझना चाहिए । जैसे उपादान में सद्भूत व्यवहारकाम विशेषरूप से करती है, उसके बिना नहीं। देखो नय से छहो कारक घटित हो जाते हैं, वैसे ही अविनाभावी द्रव्य कर्मों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध और अशुभप्रकृतियो का निमित्त कारणो में असद्भुत व्यवहारनय से छहों कारक उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध तीव्र मिथ्यात्व के बिना केवल तीव्र घटित हो जाते हैं, इसमें आगम से कोई बाधा नही आती।

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